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धिक्कार


शायद उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान भी न था। वह टकरको लगाये खिड़की की ओर ताक रही थी। उस अन्धकार में उसे न जाने क्या सूझ रहा था।

कानपुर आया। माता ने पूछा --- बेटी, कुछ खाओगी थोड़ी-सी मिठाई व लो; दस कब के बज गये।

मानी ने कहा --- अभी तो भख नहीं है अम्माँ, फिर खा लूंगी।

माता सोई। मानी भी लेटी पर चाचा की वह सूरत आंखों के सामने खड़ी थी और उनकी बाते कानों में गूंज रही थी --- आह ! मैं इतनी नीच है, ऐसी पतित, कि मेरे भर जाने से पृथ्वी का भार हलका हो जायगा क्या कहा था, तू अपने मां- भाप को बेट है तो फिर मुंह मत दिखाना। न दिखाऊँगी, जिस मुंह पर ऐसी कालिमा लगी हुई है, उसे किसी को दिखाने को इच्छा भी नहीं है।

गाड़ी अन्धकार को चीरती चली जा रहो थी। मानी ने अपना टूङ खोला और अपने आभूषण निकालकर उसमें रख दिये। फिर इन्द्रनाथ का चित्र निकालकर उसे देर तक देखती रही। उसकी आँखों में गर्व की एक झलक-सी दिखाई दो। उसने तसवोर रख दो और भाप हो-आप होली-नहीं-नहीं, मैं तुम्हारे जीवन को कलकित नहीं कर सकती। तुम देवतुत्य हो, तुमने मुझ पर दया की है, मैं अपने पूर्व संस्कारों का प्रायश्चित कर रहो थी तुमने मुझे उठाकर हृदय से लगा लिया, लेकिन मैं तुम्हें कलंकित न करूंगी। तुम्हें मुमसे प्रेम है। तुम मेरे लिए अनादर, अपमान, निंदा सब सह लोगे , पर मैं तुम्हारे जीवन का भार न बनूंगी।

गाड़ी अन्धकार को चीरती चली जा रही थी। मानी आकाश को और इतनी देर तक देखती रही कि सारे तारे अदृश्य हो गये और उस अन्धकार में उसे अपनी माता का स्वरूप दिखाई दिया ऐसा उज्ज्वळ, ऐसा प्रत्यक्ष कि उसने चौंकार भखें बन्द कर लो। फिर कमरे के अन्दर देखा तो माताजी सो रही थी।

( १० )

न जाने कितनी रात गुजार चुकी थी। दरवाजा खुलने की आहट से माताजी का आँखें खुल गई। गाड़ी तेजी से चली जा रही थी, मगर बहू का पता न था। वह आँखें मलकर उठ बैठी और पुकारा --- बहूं ! बहूं ! कोई जवाब न मिला।

उसका हृदय धक-धक करने लगा। ऊपर के बर्थ पर नजर डाली, पेशावखाने में देखा, वैचों के नीचे देखा, बहू कहीं न थी वह द्वार पर आकर खड़ी हो गई।