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मानसरोवर


लड़कों पर निकालती, विशेषकर मोहन पर । वह शायद सारे संसार को स्त्रियों को अपने ही रूप में देखना चाहती थी। कुत्सा में उसे विशेष आनन्द मिलता था। उसकी वञ्चित लालसा जल न पाकर मोस चाट लेने हो म सन्तुष्ट होतो थी; फिर यह कैसे सम्भव था कि वह मोहन के विषय में कुछ सुने और पेट में डाल ले। ज्यो हो मोहन संध्या समय दूध बेचकर घर आया, वूटी ने कहा-देखती हूँ, तू अब साड बनने पर उतारू हो गया है।

मोहन ने प्रश्न के भाव से देखा --- कैसा साँड़ ! बात क्या है ?

'तू रुपिया से छिप-छिपकर नहीं हँसता-बोलता ? उस पर कहता है, कैसा साफ ? तुझे लाज नहीं आती ! घर में पैसे-पैसे की तंगी है और वहाँ उसके लिए पान लाये लाते हैं, कपड़े रँगाये जाते हैं।'

मोहन ने विद्रोह का भाव धारण किया --- अगर उसने मुझसे चार पैसे के पान मांगे तो क्या करता ? कहता कि पैसे दे तो लाऊँगा। अपनो धोतो रंगाने को दी, तो उसरे रँगाई मांगता?

'महल्ले में एक तू ही बड़ा धन्नासेठ है। और किसी से उसने क्यों न कहा ?'

'यह वह जाने, मैं क्या बताऊँ ?'

'तुझे अब छैला बनने की समझती है। घर में भी कभी एक पैसे के पान लाया ?'

'यहाँ पान किसके लिए लाता?'

'क्या तेरे लेखे घर में सब मर गये?'

'न जानता था, तुम पान खाना चाहती हो।'

'संसार में एक रुपिया हो पान खाने जोग है?'

'शौक-सिंगार की भो तो उमिर होती है।'

बूटी जल उठी। उसे बुढ़िया कह देना उसको सारो साधना पर पानी फेर देना था। बुढ़ापे में उन साधनाओं का महत्त्व ही क्या ? जिस त्याग-कल्पना के बल पर वह सब स्त्रियों के सामने सिर उठाकर चलतो थी, उस पर इतना कठोर आत ! इन्हीं लड़कों के पीछे उसने अपनी जवानी धूल में मिला दो ! उसके आदमी को मरे आज पांच साल हुए। तब उसकी चढ़ती जवानो थी। तीन लड़के भगवान् ने इसके गले मढ़ दिये, नहीं अभी वह है के दिन को। चाहतो तो आम वह भी ओठ लाल किये, पाँव में महावर लगाये, अनवट-बिछुये पहने मठाती फिरती। यह सब कुछ उसने