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पूस की रात

हल्कू ने रुपये लिये और इस तरह शहर चला मानों अपना ह्रदय निकालकर देने जा रहा हो। उसने मजूरी में एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपये कम्बल के लिए जमा किये थे। वह आज निकले जा रहे थे। एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था।

( २ )

पूस की अंधेरी रात! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों को एक छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा काँप रहा था। खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट में मुंह डाले सर्दी से कूँ-कूँ कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी।

हल्कू ने घुटनियों को गर्दन में चिमटाते हुए कहा—क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहाँ क्या लेने आये थे। अब खामो मैं क्या करूं। जानवे थे, मैं यहाँ हलुवा-पूरो खाने आ रहा हूं, दो-दो आगे-आगे चले आये। अब रोओ नानी के नाम को।

जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलाई और अपनी कूँ - कूँ को दोर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया। उपक श्वान-बुद्धि ने शायद ताइ लिया, स्वामी को मेरी कूँ - कूँ से नींद नहीं आ रही है।

हल्कू ने हाथ निकालकर जारा को ठण्ड' पोठ सहलाते हुए कहा-कल से मत बाना मेरे साथ, नहीं तो ठण्डे हो जाओगे। यह रोड पचा न जाने कहाँ से बरफ लिये आ रही है। उलूं, फिर एक चिलप भरूं। किसी तरह रात तो कटे! आठ चिलम तो पो चुका। यह खेतो का मना है। और एक-एक मागवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास आ जाय तो गमी से घनाकर भागे ! मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ, कम्मल ! मजाल है, आहे का गुजर हो जाय । तकदोर को खूपी है। मजूरो हम करें, मजा दुसरे लूट!

हल्कू उठा और गड्ढे में से ज़रा-सी भाग निकालकर चिलम भरी। जबरा भी उठ बैठा।

हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा, पियेगा चिलम ? बाड़ा तो क्या जाता है, हो, ना मन बहल जाता है।

जबरा ने उसके मुंह की ओर प्रेम से छलकती हुई आँखों से देखा।