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अलग्योझा


केदार का चौदहवाँ साल था। भाभी के रग-ढग देखेकर सारी स्थिति समझ रहा था। बोला--काकी, भाभी अब तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती।

पन्ना ने चौंककर पूछा---क्या, कुछ कहती थी ?

केदार---कहती कुछ नहीं थी ; मगर है उसके मन में यही बात है फिर तुम क्यों नहीं उसे छोड़ देती है जैसे चाहे रहे, हमारा भी भगवान् है।

पन्ना ने दाँतों से की दवाकर कहा-चुप, मेरे सामने ऐसी बात भूलकर भी से कहा। रग्घू तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा बाप हैं। मुलिया से कभी बोलोगे, तो समझ लेना, ज़हर खा लूँगी।

( ४ )

दशहरे का त्योहार आया। इसे गाँव से कोस-सर पर एक पुरवे में मेला लगता था। गाँव के सब लड़के मेला देखने चले। पन्ना भी लड़कों के साथ चलने को तैयार हुई। मगर पैसे कहाँ से आयें ? कुञ्जो तो मुलिया के पास थी।

रग्घू ने आकर मुलिया से कहा---लड़के मेले जा रहे हैं, सबों को दो-दो आने पैसे दे दे।

मुलिया ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा---पैसे घर में नहीं हैं।

रग्घू--अभी तो तेलहन बिका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गये ? मुलिया--हो, उठ गये।

रग्घू---कहाँ लठ गये ? ज़रा सुनँ, आज त्योहार के दिन लड़के मेला देखने न जायेंगे ?

मुलिया---अपनी काकी से कहो, पैसे निकाले, गाड़कर क्या करेंगी।

खूँटी पर कुञ्जो लटक रही थी। रग्घू ने कुञ्जो उतारी और चाहा कि सन्दूक खोले कि मुलिया ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-कुञ्जो मुझे दे दो, नहीं तो ठीक न होगा। खाने-पहनने को भी चाहिए, कागज़-किताब को भी चाहिए, उस पर मेला देखने को भी चाहिए। हमारी कमाई इसलिए नहीं है कि दूसरे खायें और मूँछों पर ताव दें।

पन्ना ने रग्घू से कहा---भइया, पैसे क्या होंगे। लड़के मेला देखने न जायेंगे।

रग्धू ने झिड़कर कहा---मेला देखने क्यों न जायँगे है सारा गाँव जा रहा है। हमारे ही लड़के ने जायेंगे ?