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मानसरोवर

( ३ )

हरिधन तो उधर भूखा-प्यासा चिन्ता-दाद में मल रहा था, इधर घर में सामजी चौर दोनों बालों में घात हो रही भी। गुमानी भी हाँ में हाँ मिलाती हाती थी।

बड़े साले ने कहास लोगों की बराबरी करते हैं। यह नही समन्यते किसी ने उनकी जिन्दगी-भर ना बोला योद में लिया है। दस साल हो गये। इतने दिनों में क्या दो-तीन हार नहर गये होंगे ?

छोटे साले बोले --- मंजूर हो तो आदमो बुद्ध भी, डोटे भी, भय इनसे कोई क्या कहे। न जाने उनसे कभी पिट छूटेगा मो या नहीं। अपने दिल में समझते होगे, मैंने दो हजार रुपये नहीं दिये है ? यह नहीं समम कि सनके दो इक्षार का के सह चुके। सवा सेर तो एक जून को चाहिए।

सास ने गम्भीर भाव से कहा --- बड़ी भारी खोराक है।

गुमानी माता के सिर से जू निकाल रही थी। सुलगते हुर हृदय से बोली- निकम्मे आदमी कोसने के सिवा और काम होगा रहता है।

बड़े --- खाने की कोई बात नहीं है। जिसकी जितनी भूख हो उतना खाय। लेकिन पुरा पैदा भी तो करना चाहिए। यह नहीं समझते कि पहुनई में जिसी के दिन कटे है। छोटे-मैं तो एक दिन पहभा, अब अपनी राह लीजिए, आपका करजा नहीं खाया है।

गुमानी घरवालों की ऐसी-ऐसी बातें सुनकर अपने पति से द्वेष करने लगी थी। अगर वह शहर से चार पैसे लाता, तो इस घर में उसका कितना मान सम्मान होता, यह भी रानी बनकर रहती। न जाने क्यों कहीं बाहर जाकर कमाते उनकी नानी मरती है। गुमानी को मनोवृत्तियाँ अभी तक मिलल बालपन की-सी थीं। उसका अपना कोई घर न था। उसी घर का हित-अहित उसके लिए भी प्रधान था। वह भी उन्हों शब्दों में विचार करती, इस समस्या को उन्ही आँखों से देखती जैसे उसके घश्याले देखते थे। सच तो, दो हजार रुपये में क्या किसी को मोल ले लेंगे ? दस साल में दो हज़ार होते ही क्या है ? दो सौ ही तो साल भर के हुए। क्या दो आदमो पाल-भर में दो सौ भी न खायेंगे ? फिर कपड़े लत्ते, दुध-धी, सभी कुछ तो है। दस साल हो गये, एक पीतल का छल्ला नहीं मना। घर से निकलते तो जैसे इनके प्रान निकलते हैं।