पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/८८

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मर्यादा की वेदी 4 उतरा था। कुछ चिन्तित-से थे । प्रभा कुछ कहना चाहती थी; पर उनकी सूरत देखकर उसे उन पर दया आ गयी । उन्होंने उसे बात करने का अवसर न देकर स्वयं कहना शुरू किया । "प्रभा, तुमने अाज मुझे बुलाया है। यह मेरा सौभाग्य है। तुमने मेरी सुधि तो ली ; मगर यह मत समझो कि मैं मृदु-वाणी सुनने की आशा लेकर पाया हूँ। नही, मैं जानता हूँ, जिसके लिए तुमने मुझे बुलाया है। यह लो, तुम्हारा अपराधी तुम्हरे सामने खड़ा है। उसे जो दण्ड चाहो, दो । मुझे अब तक आने का साहस न हुया । इसका कारण यही दण्ड-भय था । तुम क्षत्राणी हो और क्षत्राणियाँ क्षमा करना नहीं जानती। झालावाड़ में जब तुम मेरे साथ आने पर स्वयं उद्यत हो गयीं, तो मैंने उसी क्षण तुम्हारे जौहर परख लिये । मुझे मालूम हो गया कि तुम्हारा हृदय बल और विश्वास से भरा हुआ है । उसे काबू में लाना सहन नहीं । तुम नहीं जानती कि यह एक मास मैंने किस तरह काटा है । तड़प-तड़पकर मर रहा हूँ ; पर जिस तरह शिकारी वफरी हुई सिंहिनी के सम्मुख जाने से डरता है, वही दशा मेरी थी। मैं कई वार आया । यहाँ तुमको उदास तिउरियों चढ़ाये बैठे देखा। मुझे अन्दर पैर रखने का साहस न हुआ; मगर आज मैं विना बुलाया मेहमान नहीं हूँ। तुमने मुझे बुलाया है और तुम्हें अपने मेहमान का स्वागत करना चाहिए । हृदय से न सही-जहाँ श्रमि प्रज्वलित हो, वहाँ ठण्डक कहो !-बातों ही से सही, अपने भावों को दवाकर ही सही, मेहमान का स्वागत करो। संसार में शत्रु का आदर मित्रों से भी अधिक किया जाता है। "प्रभा, एक क्षण के लिए क्रोध को शात करो और मेरे अपराधों पर विचार करो। तुम मेरे ऊपर यही दोपारोपण कर सकती हो कि मैं तुम्हें माता-पिता की गोद से छीन लाया। तुम जानती हो, कृष्ण भगवान् रुक्मिणी को हर लाये थे । राजपूतो में यह कोई नयी बात नहीं है। तुम कहोगी, इससे झालावादवालों का अपमान हुआ; पर ऐसा कहना कदापि ठीक नहीं । झालावादवालों ने वही किया, जो मदों का धर्म था। उनका यह पुरुषार्थ देखकर हम चकित हो गये । यदि वे कृतकार्य नहीं हुए तो यह उनका दोष नहीं है। वीरों की सदैव जीत नहीं होती ! हम इसलिए सफल हुए कि हमारी संख्या अधिक थी -