पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/८५

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१०२ मानसरोवर राणा बोले-प्रभा, मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। मैं बलपूर्वक तुम्हें माता पिता की गोद से छीन लाया, पर यदि मैं तुमसे कहूँ कि यह सब तुम्हारे प्रेम से विवश होकर मैंने किया, तो तुम मन में हँसोगी और कहोगी कि यह निराले, अनूठे ढग की प्रीति है, पर वास्तव में यही बात है । जबसे मैंने रणछोड़जी के मदिर में तुमको देखा, तबसे एक क्षण भी ऐसा नहीं बीता कि मैं तुम्हारी सुधि में विकल न रहा होऊँ । तुम्हें अपनाने का अन्य कोई उपाय होता, तो मैं कदापि इस पाशविक ढङ्ग से काम न लेता । मैंने रावसाहब की सेवा में बार बार संदेशे मेजे, पर उन्होंने हमेशा मेरी उपेक्षा की । अन्त में जब तुम्हारे विवाह की अवधि आ गयी और मैंने देखा कि एक ही दिन में तुम दूसरे की प्रेम-पात्री हो जाश्रोगी और तुम्हारा ध्यान करना भी मेरी आत्मा को दूषित करेगा, तो लाचार होकर मुझे यह अनीति करनी पड़ी । मैं मानता हूँ कि यह सर्वथा मेरी स्वार्थान्धता है । मैंने अपने प्रेम के सामने तुम्हारे मनोगत भावों को कुछ न समझा , पर प्रेम स्वय एक बढ़ी हुई स्वार्थपरता है, जब मनुष्य को अपने प्रियतम के सिवाय और कुछ नहीं सूझता । मुझे पूरा विश्वास था कि मैं अपने विनीत भाव और प्रेम से तुमको अपना लूँगा। प्रभा, प्यास से मरता हुआ मनुष्य यदि किसी गढे में मुँह डाल दे, तो वह दण्ड का भागी नहीं है। मैं प्रेम का प्यासा हूँ। मीरा मेरी सहधर्मिणी है। उसका हृदय प्रेम का अगाध सागर है । उसका एक चुल्लू भी मुझे उन्मत्त करने के लिए काफी था, पर जिस हृदय में ईश्वर का वास हो वहाँ मेरे लिए स्थान कहाँ ? तुम शायद कहोगी कि यदि तुम्हारे सिर पर प्रेम का भूत सवार था तो क्या सारे राजपूताने में स्त्रियों न थीं। निस्सदेह राज- पूताने में सुन्दरता का अभाव नहीं है। और न चित्तौड़ाधिपति की ओर से विवाह की बातचीत किसी के अनादर का कोरण हो सकती है , पर इसका जवाब तुम आप ही हो । इसका दोष तुम्हारे ही ऊपर है। राजस्थान में एक ही चित्तौड़ है, एक ही राणा और एक ही प्रभा । सम्भव है, मेरे भाग्य में प्रेमानन्द भोगना न लिखा हो। यह मैं अपने कर्म लेख को मिटाने का थोड़ा सा प्रयक्ष कर रहा हूँ; परन्तु माग्य के आधीन बैठे रहना पुरुषों का काम नहीं है। मुझे इसमें सफलता होगी या नहीं, इसका फैसला तुम्हारे हाथ है। प्रभा की आँखें जमीन की तरफ थीं और मन फुदकनेवाली चिड़िया की