मर्यादा की वेनी ६६ ( २ ) झालावाड़ में बड़ी धूम थो। राजकुमारो प्रभा का आज विवाह होगा। मन्दार से बरात पायेगी। मेहमानों के सेवा-सम्मान को तैयारियों हो रही थीं। दूकाने मजी हुई थीं । नौबतखाने ग्रामोदालाप से गूंजते थे। सड़कों पर सुगन्धि छिर की जाती थी। अट्टालिकाएँ पुरुष लतानों से शोभायमान थीं। पर जिसके लिए ये सब तैयारियाँ हो रही थी, वह अपनी वाटिका में एक वृक्ष के नीचे उदास बैठी हुई रो रही थी। रनिवास मे डोमिनियाँ अानन्दोत्सव के गीत गा रही थीं। कहीं तुन्दरियों हाव भाव थे, कहीं आभूषणों की चमक दमक, कहीं हास-परिहास की बहार । नाइन बात-बात पर तेज होती थी। मालिन गर्व से फूली न समाती थी। घोविन ओखें दिखाती थी । कुम्हारिन मटके के सदृश फूली हुई थी। मण्डप के नीचे पुरोहितजी बात-बात पर सुवर्ण-मुद्राओं के लिए ठुनकते थे। रानी सिर के बाल खोले भूखी-प्यासी चारों ओर दौड़ती थी। सरकी बौछारें सहती थी और अपने भाग्य को सराहती थी। दिल खोल कर छोरे-जवाहिर लुटा रही थी। अाज प्रभा का विवाह है। बड़े भाग्य ते ऐसी बातें सुनने में आती हैं। सब के सव अपनी-अपनी धुन में मस्त हैं। किसी को प्रभा को पिक नहीं है, जो वृक्ष के नीचे अकेली बैठी रो रही है। एक रमणी ने श्राकर नाहन से कहा-बहुत बढ़ बढ़कर बातें न कर, कुछ राजकुमारी का भी ध्यान है ? चल, उनके बाल गूंथ । नाइन ने दाँतोतले जीभ दवाई। दोनों प्रभा को ढूँढ़ती हुई बाग में पहुँचीं । प्रभा ने उन्हें देखते ही जोमू पोंछ डाले। नारन मोतियों से मांग भरने लगी गौर प्रभा सिर नीचा किये औंसों से मोती बरमाने लगी। ग्मणी ने सजल नेत्र होकर कहा-वहिन, दिल इतना छोटा मत करो। मुंहमांगी नगद पाकर इतनी उदास व्यों होती हो ? प्रभा ने सरेली की ओर देखकर कहा-बहिन, जाने क्यों दिल बैठा पाता है । सहेली ने छेडकर कहा-पिया मिलन की कली है ! प्रभा उदासीन भाव से बोली-कोरे रे नन बैठा कर रक्षा है कि श्रव उनसे मुलाकात न दोगी।
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