पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/७८

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शाप ६५ चश था । अब तो श्रीरामचन्द्र की शरण आ गया हूँ और शेष जीवन उन्हीं की सेवा में भेंट होगा। मैं-आप तो श्रीरामचन्द्र की शरण आ गये हैं, उस अवला विद्याधरी को किसकी शरण में छोड़ दिया है। पण्डित -प्रारके मुख से ये शब्द शोभा नहीं देते। मैंने उत्तर दिया-विद्याधरी को मेरी सिफ़ारिश की आवश्यकता नहीं है। अगर आपने उसके पातिव्रत पर सन्देह किया है तो अापसे ऐसा भीषण पाप दुआ है, जिसका प्रायश्चित्त श्राप बार-बार जन्म लेकर भी नहीं कर सकते । आपको यह भक्ति इस अधर्म का निवारण नहीं कर सकती । आप क्या जानते है कि आपके वियोग में उस दुखिया का जीवन कैसे कट रहा है। किन्तु पण्डितजी ने ऐसा मुँह बना लिया, मानों इस विषय में वह अन्तिम शब्द कह चुके । किंतु मैं इतनी आसानी से उनका पीछा क्यों छोड़ने लगी। मैंने सारी कथा श्राद्योपान्त सुनायी । और रणधीरसिंह की कपटनीति का रहस्य खोल दिया तब पण्डितजी की आँखें खुलीं। मैं वाणी में कुशल नहीं है, किन्तु उस समय सत्य और न्याय के पक्ष ने मेरे शब्दों को बहुत ही प्रभावशाली बना दिया था। ऐसा जान पड़ता था, मानों मेरी जिहा पर सरस्वती विराजमान हो । अब वह बातें याद आती है तो मुझे स्वयं आश्चर्य होता है । आन्विर विजय शेरे ही हाथ रही । पण्डितजी मेरे साथ चलने पर उद्यत हो गये । ( १५ ) यहाँ आकर मैने शेरसिंह को यहीं छोड़ा और पण्डितजी के साथ अर्जुननगर को बली । हम दोनों अपने विचारों में मम ये। पण्डितजी की गर्दन शर्म से शुकी हुई थी क्योंकि अब उनकी हैसियत रूठनेवालों की भाँति नहीं, बल्कि मनानेवालों की तरह थी। प्राज प्रणय के सूत्वे हुए धान में फिर पानी पड़ेगा, प्रेम की सुपी हुई नदी फिर उमदेगी? जब हम विद्याधरी के द्वार पर पहुंचे तो दिन चढ़ पाया था । परिडतजी वाइर ही कक गये थे। मैंने भीतर जाकर देखा तो विद्याधरी पूजा पर यो। फिन्तु यह किसी देवता की पूजा न थी। देवता के स्थान पर परिहत्जी की