. के-से शब्द राजा के हृदय में चुभ गये। मुँह से एक शब्द भी न निकला। काल से न डरनेवाला राजपूत एक स्त्री की आग्नेय दृष्टि से काँप उठा । ( १३ ) एक वर्ष बीत गया, हिमालय पर मनोहर हरियाली छाई, फूलों ने पर्वत की गोद में कोड़ा करनी शुरू की । यह ऋतु बीती, जल-थल ने बर्फ की सुफेद चादर पोदी, जलपक्षियों की मालाएँ मैदानों की ओर उड़ती हुई दिखाई देने लगी । यह मौसम भी गुजरा । नदी-नालों में दूध की धार बहने लगी, चन्द्रमा की स्वच्छ नि ल ज्योति शानसरोवर में थिरकने लगी, परन्तु पण्डित श्रीधर की कुछ टोह न लगी। विद्याधरी ने राजभवन त्याग दिया और एक पुराने निर्जन मन्दिर में तपस्विनियों की भाँति कालक्षेप करने लगी। उस दुखिया की दशा कितनी करुणाजनक थी। उसे देखकर मेरी आँखें भर आती थीं। वह मेरी प्यारी सखी थी। उसकी संगत मे मेरे जीवन के कई वर्ष आनन्द से व्यतीत हुए थे। उसका यह अपार दुःख देखकर मै अपना दुःख भूल गयो । एक दिन वह था कि उसने अपने पातिव्रत के बल पर मनुष्य को पशु के रूप में परिणत कर दिया था, और श्राज यह दिन है कि उसका पति भी उसे त्याग रहा है। किसी स्त्री के हृदय पर इससे अधिक लजाजनक, इससे अधिक प्राणवातक आघात नहीं लग सकता । उसकी तपस्या ने मेरे हृदय में उसे फिर उसी सम्मान के पद पर बिठा दिया। उसके सतीत्व पर फिर मेरी श्रद्धा हो गयी ; किन्तु उससे कुछ पूछते, सान्त्वना देते मुझे संकोच होता था। मैं डरती थी कि कहीं विद्याघरी यह न समझे कि मैं उससे बदला ले रही हैं। कई महीनों के बाद जब विद्याघरी ने अपने हदय का बोझ इलका करने के लिए स्वयं मुझसे यह वृत्तान्त कहा तो मुझे ज्ञात हुआ कि यह सब कोटे राजा रणधीरसिंह के बोये हुए थे। उन्हीं को प्रेरणा से रानीजी ने पण्डितजी के साथ जाने से रोका । उसके स्वभाव ने जो कुछ रग बदला वह रानीजी की कुसंगत का फल था। उन्हों की देखा-देखी उसे बनाव-श्रृंगार की चाट पड़ी, उन्हीं के मना करने से उसत्ते कंगन का मेद पण्डितजी से छिगया। ऐसी घटनाएँ वियों के जीवन में नित्य होती रहती है और उन्हें जरा भी शंक्षा नहीं होती। विद्याधरी का पातिव्रत श्रादर्श या । इसलिए यह विचल्ता उसने हदय में चुभने लगी। मैं यह नहीं -
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