६२ मानसरोवर 1 7 की आँखें नीचे को झुक गयीं। वह उनसे अखें न मिला सकी। भय हुआ कि कहीं यह तीव्र दृष्टि मेरे हृदय में न चुभ जाय। पण्डितजी कठोर स्वर में वोले- विद्याधरी, तुम्हें स्पष्ट कहना होगा। विद्याधरी से अब न रुका गया, वह रोने लगी और पण्डितजी के सम्मुख धरती पर गिर पड़ी। ( १२ ) विद्याघरी को जब सुध आयी तो पण्डितजी का वहाँ पता न था । घबराई हुई बाहर के दीवानखाने में आयी, मगर यहाँ भी उन्हें न पाया। नौकरों से पूछा तो मालूम हुश्रा कि घोड़े पर सवार होकर ज्ञानसरोवर की ओर गये हैं । यह सुनकर विद्याधरी को कुछ ढाढ़स हुआ। वह द्वार पर खड़ी होकर उनकी राह देखती रही। दोपहर हुआ, सूर्य सिर पर आया, सध्या हुई, चिड़ियाँ बसेरा लेने लगी, फिर रात आयो, गगन में तारागण जगमगाने लगे, किन्तु विद्याधरी दीवार की भाँति खड़ी पति का इन्तजार करती रही । रात भीग गयी, वनजन्तुओं के भयानक शब्द कानों में आने लगे, सन्नाटा छा गया । सहसा उसे घोड़े के टापों की ध्वनि सुनाई दी उसका हृदय फड़कने लगा। आनन्दोन्मत्त होकर द्वार के बाहर निकल आयी, किन्तु घोड़े पर सवार न था । विद्याधरी को अब विश्वास हो गया कि अब पतिदेव के दर्शन न होंगे। या तो उन्होंने सन्यास ले लिया या आत्मघात कर लिया। उसके कठ से नैराश्य और विषाद में डूबी -हुई ठढी सौंस निकली। वही भूमि पर बैठ गयी और सारी रात खून के आँसू वहाती रही। जब उषा की निद्रा भंग हुई और पक्षी आनन्दगान करने लगे तब वह दुखिया उठी और अन्दर जाकर लेट रही। जिस प्रकार सूय का ताव जल को सोख लेता है, उसी भाँति शोक के ताव ने विद्याधरी का रक्त जला दिया। मुख से ठही साँस निकलती थी, आँखों से गर्म आँसू बहते थे। भोजन से अरुचि हो गयी और जीवन से घृणा। इसी अवस्था में एक दिन राजा रणधीरसिंह सहवेदना-भाव से उसके पास आये। उन्हें देखते ही विद्याधरी की आँखें रक्तवर्ण हो गयीं, क्रोध से ओठ काँपने लगे, झलाई हुई नागिन की भाँति फुफकारकर उठी और राजा के सम्मुख पाकर कर्कश स्वर में बोली, 'पापी, यह आग तेरी ही लगायी हुई है। यदि मुझमें अब भी कुछ सत्य है, तो तुझे इस दुष्टता के कडुवे फल मिलेंगे।' ये तीर
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