5 मानसरोवर कहाँ गये ? हाय, मैं बिना घरबार का मुसाफिर अब अकेला ही हूँ? क्या मेरा कोई भी साथी नहीं ? इस बरगद के निकट अब थाना था और बरगद के नीचे कोई लाल साफा बाँधे बैठा था। उसके आस पास दस-बीस लाल पगड़ीवाले करबद्ध खड़े थे ! वहाँ फटे-पुराने कपड़े पहिने, दुर्भिक्षग्रस्त पुरुष, जिसपर अभी चाबुकों की बौछार हुई थी, पड़ा सिसक रहा था । मुझे ध्यान आया कि यह मेरा प्यारा देश नहीं है, कोई और देश है । यह योरोप है, अमेरिका है, मगर मेरी प्यारी मातृभूमि नहीं है-कदापि नहीं है।
(३)
इधर से निराश होकर मैं उस चौपाल की ओर चला, जहाँ शाम के वक्त पिता जी गाँव के अन्य बुजुर्गों के साथ हुक्का पीते और हँसी-कहकहे उड़ाते थे । हम भी उस टाट के बिछौने पर कलाबाजियों खाया करते थे। कभी-कभी वहाँ पचायत भी बैठती थी, जिसके सरपच सदा पिता जी ही हुआ करते थे। इसी चौपाल के पास एक गोशाला थी, जहाँ गाँवभर की गायें रखी जाती थीं और वछड़ों के साथ हम यहीं किलोलें किया करते थे। शोक ! कि अब उस चौपाल का पता तक न था। वहाँ अब गाँवों में टीका लगाने की चौकी और डाकखाना था।
उस समय इसी चौपाल से लगा एक कोल्हवाड़ा था, जहाँ जाड़े के दिनों में ईख पेरी जाती थी और गुड़ की सुगन्ध से मस्तिष्क पूर्ण हो जाता था। हम और हमारे साथी वहाँ गडेरियों के लिए बैठे रहते और गडेरियों करनेवाले मजदूरों के हस्तलाघव को देखकर आश्चर्य किया करते थे । वहाँ हजारों बार मैंने कच्चा रस और पक्का दूध मिलाकर पिया था और वहाँ आस पास के घरों की स्त्रियाँ और बालक अपने-अपने घड़े लेकर आते थे और उनमें रस भरकर ले जाते थे । शोक है कि वे कोल्हू अब तक ज्यों-के त्यों खड़े थे, किंतु कोल्हवाड़े की जगह पर अब एक सन लपेटनेवाली मशीन लगी थी और उसके सामने एक तम्बोली और सिगरेटवाले की दूकान थी । इन हृदय-विदारक दृश्यों को देखकर मैंने दुःखित हृदय से, एक आदमी से, जो देखने में सभ्य मालूम होता था, पूछा-"महाशय, मैं एक परदेशी यात्री हूँ । रात भर लेट रहने की मुझे आज्ञा दीजिएगा।" इस आदमी ने मुझे सिर से पैर तक गहरी दृष्टि से देखा और