शाप खेलती। यह उनका शृंगार करती और वह उनकी माँग-चोटी सँवारती मानों विद्याधरी ने रानी के हृदय में वह स्थान प्राप्त कर लिया, जो किसी समय मुझे प्राप्त था । लेकिन वह गरीब क्या जानती थी कि जब मैं वाग की रविशों में विचरती है, तो कुवासना मेरे तलवे के नीचे आँखें विछाती है, जब में झूला झूलती हूँ, तो वह आड़ में बैठी हुई अानन्द से झूमती है। इस एक सरल हृदय अबला त्री के लिए चारों ओर से चक्रव्यूह रचा जा रहा था । इस प्रकार एक वर्ष व्यतीत हो गया, राजा साहब का रन्त-जन्त दिनों- दिन बढ़ता जाता था । पण्डितजी को उनसे वह स्नेह हो गया जो गुरुजी को अपने एक होनहार शिष्य से होता है । मैंने जब देखा कि ग्राठों पहर का यह सहवास पण्डितजी के काम में विघ्न डालता है, तो एक दिन मैंने उनसे कहा- यदि आपको कोई आपत्ति न हो, तो दूरस्थ देहातों का दौरा आरम्भ कर दें और इस बात का अनुसंधान करें कि देहातो मे कृपकों के लिए बैंक खोलने में हमें प्रजा से कितनी सहानुभूति और कितनी सहायता की आशा करनी चाहिए। पण्डितजी के मन की बात नहीं जानती , पर प्रत्यक्ष में उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की । दूसरे ही दिन प्रातःकाल चले गये । किन्तु आश्चर्य है कि विद्याधरी उनके साथ न गयी । अब तक पण्डितजी जहाँ कहीं जाते थे, विद्याधरी परछाई की भाँति उनके साथ रहती थी । असुविधा या कष्ट का विचार भी उसके मन में न शांता या । पण्डितजी कितना ही समझायें, कितना ही डरायें, पर वह उनका साथ न छोड़ती थी ; पर अबकी बार कट के विचार ने उसे कर्तव्य के मार्ग से विमुख कर दिया । पहले उसका पातिव्रत एक वृक्ष था, जो उसके प्रेम की क्यारी में अकेला खड़ा था; किन्तु अब उसी क्यारी में मैत्री का घास-पात निकल आया था, जिनका पोपण भी उसी भोजन पर अवलम्बित था। ( ६ ) ऐ मुसाफिर, छः महीने गुजर गये और पण्डित श्रीधर वापस न आये । पहाड़ों की चोटियों पर छाया हुआ हिम घुल घुलकर नदियों में रहने लगा, उनकी गोद में फिर रंग-बिरंग के फल लहलहाने लगे | चन्द्रमा की किरणे फिर फूलों की महक रूंघने लगीं। सभी पर्वतों के पक्षी अपनी वार्षिक यात्रा समाप्त कर फिर त्वदेश आ पहुँचे; किन्तु पण्डितजी रियासत के काम में ऐसे उलझे
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/६८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।