७८ मानसोरवर श्राकर कर्कश-स्वर में पाली -"तू कौन है ?” मैंने निभीक माव से उत्तर दिया- "मैं ज्ञानसरोवर के तट पर रहती हूँ। यहाँ बाजार में कुछ सामग्रियों लेने आयो थी, किन्तु शहर में किसी का पता नहीं।" उस स्त्री ने पीछे की ओर देखकर कुछ सकेत किया और दो सवारों ने आगे बढ़कर मुझे पकड़ लिया और मेरी चाहों में रस्सियाँ डाल दी। मेरी समझ में न आता था कि मुझे किस अपराध का दण्ड दिया जा रहा है । बहुत पूछने पर भी किसी ने मेरे प्रश्नों का उत्तर न दिया । हाँ, अनुमान से यह प्रकट हुआ कि यह त्री यहाँ की रानी है । मुके अपने विषय में तो कोई चिन्ता न थी, पर चिन्ता थी शेरसिंह की । वह अकेले घबरा रहे होंगे । भोजन का समय आ पहुँचा, कौन खिलावेगा। किस विपत्ति में फंसी । नहीं मालूम विधाता अब मेरी क्या दुर्गति करेंगे । मुझ गभागिन को इस दशा में भी शाति नहीं। इन्हीं मलिन विचारों में मग्न में सवारों के साथ आप घण्टे तक चलती रही कि सामने एक ऊँची पहाड़ी पर एक विशाल भवन दिखाई दिया । ऊपर चढ़ने के लिए पत्थर काटकर चौड़े जीने बनाये गये ये । हम लोग ऊपर चढे । वहाँ सैकड़ों ही आदमी दिखायी दिये किन्तु सब- के सब काले वस्त्र धारण किये हुए थे । मैं जिस कमरे में लाकर रखी गयी, वहाँ एक कुशासन के अतिरिक्त सजावट का और सामान न था । मै जमीन पर बैठकर अपने नसीब को रोने लगी। जो कोई यहाँ आता था, मुझपर करुण दृष्टिपात करके चुपचाप चला जाता था । थोड़ी देर में रानी साहब लाकर उसी कुशासन पर बैठ गयीं । यद्यपि उनकी अवस्था पचास वर्ष से अधिक थी; परन्तु मुख पर अद्भुत कान्ति थी। मैंने अपने स्थान से उठकर उनका सम्मान किया और हाथ बाँधकर अपनी किस्मत का फैसला सुनने के लिए खड़ी हो गयी । ऐ मुसाफिर, रानी महोदया के तेवर देखकर पहले तो मेरे प्राण सूख गये, किन्तु जिस प्रकार चंदन जैसी कटोर वस्तु में मनोहर सुगध छिपी होती है, उसी प्रकार उनकी कर्कशता और कठोरता के नीचे मोम के सदृश हृदय छिपा हुआ था । उनका प्यारा पुत्र थोड़े ही दिन पहले युवावस्था ही में दगा दे गया था। उसी के शोक में सारा शहर मातम मना रहा था। मेरे पकड़े जाने का कारण यह था कि मैंने काले वस्त्र क्यों न धारण किये थे । यह मृतान्त सुनकर मैं समक्ष
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