मानसरोवर सजते थे। वह लज्जा और ग्लानि की मूर्ति बनी हुई थी। वह पैरों पर गिर पड़ी, पर मुँह से कुछ न बोली । उस गुफा में पल भर भी ठहरना अत्यन्त शकाप्रद था। न जाने कत्र डाकू फिर सशस्त्र होकर आ जायँ । उघर चिताग्नि भी शात होने लगी और उस सती की भीषण काया अत्यन्त तेज रूप धारण करके हमारे नेत्रों के सामने ताण्डव क्रीड़ा करने लगी। मैं बड़ी चिंता में पड़ी कि इन दोनों प्राणियो को कैसे वहाँ से निकालूं । दोनों ही रक्त से चूर थे। शेरसिंह ने मेरे असमजस को तार लिया । रूपान्तर हो जाने के बाद उनकी बुद्धि बढ़ी तीव्र हो गई थी। उन्होंने मुझे संकेत किया कि दोनों को हमारी पीठ पर बिठा दो। पहले तो मैं उनका श्राशय न समझी, पर जब उन्होने सकेत को बार-बार दुहराया तो मैं समझ गयी । गूगों के घरवाले ही गूगों की बातें खूब समझते हैं। मैंने पण्डित श्रीवर को गोद मे उठाकर शेरसिंह की पीठ पर बिठा दिया। उनके पीछे विद्याधरी को भी बिठाया। नन्हा बालक भालू की पीठ पर बैठकर जितना डरता है, उससे कहीं ज्यादा यह दोनों प्राणी भयभीत हो रहे थे । चिताम के क्षीण प्रकाश मे उनके भयविकृत मुख देखकर करुण विनोद होता था । अस्तु मैं इन दोनों प्राणियों को साथ लेकर गुफा से निकली और फिर उसी तिमिरसागर का पार करके मन्दिर श्रा पहुँची। मैंने एक सप्ताह तक उनका यथाशक्ति सेवा-सत्कार किया। जब वह भली-भाति स्वस्थ हो गये तो मैंने उन्हें विदा किया। ये स्त्री-पुरुप कई आदमियो के साथ टेढ़ी जा रहे थे, यहाँ क राजा पण्डित श्रीधर के शिष्य हैं। पण्डित श्रीवर का घोड़ा यागे था, विद्याधरी सवारी का अभ्यास न होने के कारण पाछे थी, उनके दोनों रक्षक भी उनके साथ थे । जब डाकुओं ने पण्डित श्रीधर को घेरा और पण्डित ने पिस्तौल से डाकू सरदार को गिराया तो कोलाहल मुनकर विद्याधरी ने घोड़ा बढ़ाया। दोनों रक्षक तो जान लेकर भागे, विद्याधरी का डाकुओ ने पुरुष समझ- कर घायल कर दिया और तब दोनों प्राणियों को बाँककर गुफा में डाल दिया । शेप बातें मैंने अपनी आँखों से देखीं । यद्यपि यहाँ से विदा होते समय विद्याधरी का रोम-रोम मुझे आशीर्वाद दे रहा था । पर हा ! अभी प्रायश्चित्त पूरा न हुआ था । इतना आत्म समर्पण करके भी मैं सफल मनोरथ न हुई थी।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/५९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।