७२ मानसरोवर हो गया कि गगामाता के उदर ही मे मेरी जल-समाधि होगी। अकस्मात् मैंने उस पुरुष की लाश को एक चट्टान पर रुकते देखा । मेरा हौसला बँध गया । शरीर मे एक विचित्र स्फूर्ति का अनुभव हुआ । जोर लगाकर प्राणपण से उस चट्टान पर जा पहुंची और उसका हाथ पकड़कर खींचा । मेरा कलेजा धक से हो गया । यह श्रीधर पण्ठित थे। ऐ मुसाफिर, मैंने यह काम प्राणो को हथेली पर रखकर पूरा किया। जिस समय मैं पण्डित श्रीधर की अर्धमृत देह लिए तट पर आयी तो सहस्रो मनुष्यों की जयध्वनि से आकाश गूंज उठा। कितने ही मनुष्यों ने मेरे चरणों पर सिर झुकाये । अभी लोग श्रीधर को होश मे लाने के उपाय कर ही रहे थे कि विद्या- धरी मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। उसका मुख प्रभात के चन्द्र की भांति कातिहीन हो रहा था, होठ सूखे हुए , बाल बिखरे हुए । श्रॉखों से आँसुओं की झली लगी हुई थी। वह जोर से हॉफ रही थी, दौड़कर पैरो से चिमट गयी, किन्तु दिल खोलकर नहीं, निर्मल भाव से नहीं। एक की आँखें गर्व से भरी हुई थीं और दूसरे की ग्लानि से झुकी हुई । विद्याधरी के मुंह से बात न निकलती थी। केवल इतना बोली- 'बहिन, ईश्वर तुमको इस सत्कार्य का फल दें।' ऐ मुसाफिर, यह शुभकामना विद्याधरी के अन्तःस्थल से निकली थी। मैं उसके मुंह से यह आशीर्वाद सुनकर फूली न समाई । मुझे विश्वास हो गया कि अबकी बार जब मैं अपने मकान पर पहुंचूंगी तो पतिदेव मुस्कराते हुए मुझसे गले मिलने के लिए द्वार पर श्रायेंगे । इस विचार से मेरे हृदय मे गुदगुदी-सी होने लगी। मैं शीघ्र ही स्वदेश को चल पड़ी। उत्कण्ठा मेरे कदम बढ़ाये जाती थी। मैं दिन में भी चलती और रात को भी चलती, मगर पैर थकना ही न जानते थे। यह श्राशा कि वह मोहनीमूर्ति द्वार पर मेरा स्वागत करने के लिए खड़ी होगी, मेरे पैरो मे पर-सा लगाये हुए थी। एक महीने की मजिल मैने एक सप्ताह में तय की। पर शोक ! जब मकान के पास पहुंची, तो उस घर को देखकर दिल बैठ गया और हिम्मत न पड़ी कि अन्दर क़दम रखू । मैं चौखट पर बैठकर देर तक विलाप करती रही । न किसी नौकर का पता था,
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