७० मानसरोवर विद्याधरी ने निर्दय होकर कहा-मैने कुछ नहीं किया। यह उसके कर्मों का फल है मैं तुम्हें छोड़कर और किसकी शरण जाऊँ, क्या तुम इतनी दया न करोगी? विद्याधरी-मेरे किये अब कुछ नहीं हो सकता । मै- देवि, तुम पातिव्रतधारिणी हो, तुम्हारे वाक्य की महिमा अपार है । तुम्हारा क्रोध यदि मनुष्य से पशु बना सकता है, तो क्या तुम्हारा दया पशु से मनुष्य न बना सकेगी? विद्याधरी-प्रायश्चित्त करो। इसके अतिरिक्त उद्धार का और कोई उपाय नहीं। ऐ मुसाफिर, मैं राजपूत की कन्या हूँ। मैंने विद्याधरी से अधिक अनुनय- विनय नहीं की । उसका हृदय दया का आगार था । यदि मैं उसके चरणों पर शीश रख देती तो कदाचित् उसे मुझपर दया आ जाती , किन्तु राजपूत की कन्या इतना अपमान नहीं सह सकती । वह घृणा के घाव सह सकती है, क्रोध की अग्नि सह सकती है, पर दया का बोझ उससे नहीं उठाया जाता। मैंने पटरे से उतरकर पतिदेव के चरणों पर सिर झुकाया और उन्हें साथ लिए हुए अपने मकान चली आयी। कई महीने गुजर गये । मैं पतिदेव की सेवा शुश्रूषा में तन-मन से व्यस्त रहती। यद्यपि उनकी जिह्वा पाणीविहीन हो गयी थी, पर उनकी आकृति से स्पष्ट प्रकट होता था कि वह अपने कर्म से लज्जित थे। यद्यपि उनका रूपान्तर हो गया था , पर उन्हें मास से अत्यन्त घृणा थी। मेरी पशुशाला में सैकड़ों गायें-मैसें थीं, किन्तु शेरसिंह ने कभी किसी की ओर आँख उठाकर मी न देखा । मैं उन्हें दोनों वेला दूध पिलाती और सध्या समय उन्हें साथ लेकर पहाड़ियों की सैर कराती । मेरे मन में न जाने क्यों धैर्य और साहस का इतना संचार हो गया था कि मुझे अपनी दशा असह्य न जान पड़ती थी। मुझे निश्चय था कि शीघ्र ही इस विपत्ति का अन्त भी होगा । इन्हीं दिनों हरिद्वार में गगा स्नानका मेला लगा। मेरे नगर से यात्रियों
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