६८ मानसरोवर था। यह वह समय है जब रमणियों को विदेशगामी प्रियतम की याद रुलाने लगती है, जब हृदय किसी से आलिंगन करने के लिए व्यग्र हो जाता है। जब सूनी सेज देखकर कलेजे में एक सी उठती है। इसी ऋतु में विरह की मारी वियोगिनियों अपनी बीमारी का बहाना करती है, जिसम उसका पति उसे देखने आवे। इसी ऋतु में माली की कन्या घानी साड़ी पहनकर क्यारियों में अठिलाती हुई चम्पा और वेते के फूलों से आँचल भरती है, क्योंकि हार और गजरों की माँग बहुत बढ़ जाती है । मैं और विद्याधरी ऊपर छत पर बैठी हुई वर्षाऋतु मी रहार देख रही थी और कालिदास का ऋतुसहार पढ़ती थी कि इतने में मेरे पति ने आकर कहा-"आज बड़ा सुहावना दिन है। झूला झूलने में बड़ा आनन्द आयेगा ।” सावन में झूला झूलने का प्रस्ताव क्योकर रद्द किया जा सकता था । इन दिनों प्रत्येक रमणी का चित्त प्राप ही आप झूला झूलने के लिए निकल हो जाता हैं। जब वन के वृक्ष झूला झूलते हों, जल की तरगें झूला झूलती हो और गगन मण्डल के मेव झूला झूलते हों, जब सारी प्रकृति आन्दोलित हो रही हो तो रमणी का कोमल हृदय क्यों न चचल हो जाय ! विद्याधरी भी राजी हो गयीं। रेशम की डोरियों कदम की डाल पर चढ़ गयीं । चन्दन का पटरा रख दिया गया और मैं विद्याधरी के साथ झूला झूलने चली । जिस प्रकार जानसरोवर पवित्र जल से परिपूर्ण हो रहा है उसी भाँति हमारे हृदय पवित्र आनन्द से परिपूर्ण थे । किन्तु शोक! वह कदाचित् मेरे सौभाग्यचन्द्र की अतिम भल्क थी। मैं झूले के पास पहुंचकर पटरे पर जा बैठी , किन्तु कोमलागी विद्याधरी ऊपर न आ सकी। वह कई बार उचकी, परन्तु पटरे तक न आ सकी । तब मेरे पतिदेव ने सहारा देने के लिए उसकी बाँह पकड़ ली। उस समय उनके नेत्रो में एक विचित्र तृष्णा की भलक थी और मुख पर एक विचित्र आतुरता। वह धीमे स्वरों में मल्हार गा रहे थे , किन्तु विद्याधरी नन पटरे पर आयी तो उसका मुख डूबते हुए सूर्य की भाँति लाल हो रहा या, नेत्र अरुण- वर्ण हो रहे थे। उसने पतिदेव की ओर क्रोधोन्मत्त होकर कहा- "तूने काम के वश होकर मेरे शरीर में हाथ लगाया है । मैं अपने पतिव्रत के बल से तुझे शाप देती हूँ कि तू इसी क्षण पशु हो जा।" यह कहते ही विद्यावरी ने अपने गले से रुद्राक्ष की माला निकालकर मेरे
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