रानी सारन्धा ५३ शाहजादा मुहीउद्दीन चम्बल के किनारे से आगरे की ओर चला तो सौभाग्य उसके सिर पर मोर्छल हिलाता था । जब वह आगरे पहुँचा तो विजयदेवी ने उसके लिए सिंहासन सजा दिया ! औरगजेब गुणज था। उसने बादशाही सरदारों के अपराध क्षमा कर दिये, उनके राज्य-पद लोटा दिये और राजा चम्पतराय को उसके बहुमूल्य कृत्यों के उपलक्ष्य में बारह हज़ारी मन्सब प्रदान किया। ओरछा से बनारस और बनारस से जमुना तक उसकी जागीर नियत की गयी। बुंदेला राजा फिर राज-सेवक चना, वह फिर सुख-विलास में डूबा और रानो सारधा फिर पराधीनता के शोक से घुलने लगी। वली बहादुर खॉ बड़ा वाक्य-चतुर मनुष्प था। उसकी मृदुता ने शीघ्र ही उसे बादशाह आलमगीर का विश्वासपात्र बना दिया। उस पर राज-सभा में सम्मान की दृष्टि पड़ने लगी। खाँ साहब के मन में अपने घोड़े के हाथ से निकल जाने का बड़ा शोक था । एक दिन कुँवर छत्रसाल उसी घोड़े पर सवार होकर सैर को गया था। वह खाँ साहब के महल को तरफ जा निकला। वली बहादुर ऐसे ही अवसर की ताक में था। उसने तुरन्त अपने सेवकों को इशारा किया। राजकुमार अकेला क्या करता ? पाँव-पाँव घर आया और उसने सारन्या से सब समाचार बयान किया । रानी का चेहरा तमतमा गया । बालो, "मुझे इसका शोक नहीं कि घोड़ा हाथ से गया, शोक इसका है कि तू उसे खोकर जीता क्यों लौटा ? क्या तेरे शरीर में बुदेलों का रक्त नहीं है ? घोड़ा न मिलता, न सही; किन्तु तुझे दिवा देना चाहिए था कि एक बुदेला बालक से उसका घोड़ा छीन लेना हँसी नहीं है। यह कहकर उसने अपने पच्चीस योद्धाओ को तैयार होने की ग्राशा दी। स्वयं अस्त्र धारण किये और याद्धाओं के साथ वली बहादुर खाँ के निवास स्थान पर जा पहुँची। खाँ साहब उसी घोड़े पर सवार होकर दरवार चले गये थे, सारन्धा दरबार की तरफ चलो, और एक क्षण में किसी वेगवती नदो के सहश वादशाही दरवार के सामने जा पहुँची। यह कैफियत देखते ही दरवार में इलवल मच गयी। अधिकारी वर्ग इधर-उधर से श्राकर जमा हो गये ।
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