रानी सारन्धा ४६ की चेरी हूँ । ओरछे मे मै वह थी जो अवध में कौशल्या थीं, यहाँ मैं बादशाह के एक सेवक की स्त्री हूँ | जिस बांदशाह के सामये आज आप आदर से सिर मुकाते हैं, वह कल आप के नाम से काँपता था । रानी से चेरी होकर भी प्रसन्न- चित्त होना मेरे बस में नहीं है। आपने यह पद और ये विलास की सामग्रियों बड़े महंगे दामों मोल ली हैं। चम्पतराय के नेत्रों पर से एक पर्दा सा हट गया। वे अब तक सारन्धा की आत्मिक उच्चता को न जानते थे। जैसे वे-माँ बाप का बालक माँ की चर्चा मुनकर रोने लगता है, उसी तरह ओरछे की याद से चम्मतराय की आँखें सजल हो गयीं। उन्होंने आदरयुक्त अनुराग के साथ सारन्धा को हृदय से लगा लिया। आज से उन्हें फिर उसी उजड़ी बस्ती की फिक्र हुई, जहाँ से धन और कीर्ति की अभिलापाएँ खींच लाई थीं। माँ अपने खोये हुए बालक को पाकर निहाल हो जाती है । चम्पतराय के आने से बुन्देलखण्ड निहाल हो गया। ओरछे को माग जागे। नौवते झड़ने लगी और फिर सारन्धा के कमल-नेत्रों में जातीय अभिमान का श्राभास दिखायी देने लगा! यहाँ रहते-रहते महीने बीत गये। इसी बीच में शाहजहाँ बीमार पड़ा। पहले से ईर्ष्या की अग्नि दहक रही थी। यह खबर सुनते ही ज्वाला प्रचण्ड हुई । संग्राम की तैयारियाँ होने लगीं। शाहजादा मुराद और मुहीउद्दीन अपने- अपने दल सजाकर दक्खिन से चले । वर्षा के दिन थे । उर्वरा भूमि रंग-बिरंग के रूप भरकर अपने सौन्दर्य को दिखाती थी। मुराद और मुहीउद्दीन उमगों से भरे हुए कदम बढ़ाते चले आये थे । यहाँ तक कि वे धौलपुर के निकट चम्बल के तट पर था पहुँचे ; परन्तु वहाँ उन्होंने बादशाही सेना को अपने शुभागमन के निमित्त तैयार पाया । शाहजादे अब बढ़ी चिन्ता में पड़े । सामने अगम्य नदी लहरें मार रही थी, किसी योगी के त्याग के सदृश । विवश होकर चम्पतराय के पास सन्देश भेजा कि खुदा के लिए श्राकर हमारी डूबती हुई नाव को पार लगाइए । राजा ने भवन में जाकर सारन्धा से पूछा-इसका क्या उत्तर दूँ! ४
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