४० मानसरोवर गोपी-मुझे भय है कि कहीं बीमारी तूल न खींचे। संग्रहणी असाध्य रोग है । महीने-दो महीने यहाँ और रहने पड़ गये तो बात खुल जायगी। आनन्दी-(चिढ़कर) खुल जायगी, खुल जाय । अब इसे कहाँ तक डरूँ! गोपी-मैं मी न डरता, अगर मेरे कारण नगर की कई संस्थाओं का प्चीवन संकट में न पड़ जाता। इसीलिए मैं बदनामी से डरता हूँ। समाज के यह बघन निरे पाखड हैं। मैं उन्हें सम्पूर्णतः अन्याय समझता हूँ। इस विषय तुम मेरे विचारों को भली-भाँति जानती हो, पर करूँ क्या ? दुर्भाग्यवश मैंने जाति-सेवा का भार अपने ऊपर ले लिया है और उसी का फल है कि आज मुझे अपने माने हुए सिद्धान्तों को तोड़ना पड़ रहा है और जो वस्तु मुझे प्राणों से भी प्रिय है, उसे यो निर्वासित करना पड़ रहा है। किन्तु आनन्दी की दशा सँभलने की जगह दिनों-दिन गिरती ही गयी। कमजोरी से उठना-बैठना कठिन हो गया। किसी वैद्य या डाक्टर को उसकी अवस्था न दिखायी जाती थी। गोपीनाय दवाएँ लाते थे, आनन्दी उनका सेवन करती थी और दिन-दिन निर्बल होती जाती थी। पाठशाला से उसने छुष्टी ले ली थी। किसी से मिलती जुलती भी न थी। बार-बार चेष्टा करती कि मथुरा चली जाऊँ, किन्तु एक अनजान नगर में अकेले कैसे रहूँगी, न कोई आगे न पीछे । कोई एक चूंट पानी देने वाला भी नहीं । यह सब सोचकर उसकी हिम्मत टूट जाती थी । इसो सोच-विचार और हैस-बैस में दो महीने और गुजर गये और अन्त में विवश होकर आनन्दी ने निश्चय किया कि अब चाहे कुछ सिर पर बीते, यहाँ से चल ही ढूँ। अगर सफर में मर भी जाऊँगी तो क्या चिन्ता है। उनकी बदनामी तो न होगी। उनके यश को कलंक तो न लगेगा। मेरे पीछे ताने तो न सुनने पड़ेंगे। सफर की तैयारियों करने लगी। रात को जाने फा मुहूर्त था कि सहसा सध्याकाल ही से प्रसवपीड़ा होने लगी और ग्यारह वमते-बजते एक नन्हा-सा दुर्बल सतर्वासा बालक प्रसव हुआ। बच्चे के होने की आवाज सुनते ही लाला गोपीनाथ वेतहाशा ऊपर से उतरे और गिरते. पड़ते घर भागे । आनन्दी ने इस भेद को अन्त तक छिपाये रखा, अपनी दारुण प्रसवपीड़ा का हाल किसी से न कहा । दाई को भी सूचना न दी; मगर
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/३३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।