त्यागी का प्रेम छोड़कर जाने का जी नहीं चाहता । आश्चर्य था कि और किसी को पाठशाला की दशा में अवनति न दीखती थी, वरन हालत पहले से अच्छी यो। एक दिन पण्डित अमरनाथ की लालाजी से भेंट हो गयी। उन्होंने पूछा- कहिए, पाठशाला खूब चल रही है न ? गोपी-कुछ न पूछिए । दिनों-दिन दशा गिरती जाती है । श्रमर-आनन्दी बाई की ओर से ढील है क्या ? गोपी-जी हाँ, सरासर । अब काम करने में उनका जी ही नहीं लगता । बैठी हुई योग और ज्ञान के प्रथ पढ़ा करती हैं । । कुछ कहता हूँ तो कहती हैं, मै अब इससे और अधिक कुछ नहीं कर सकती। कुछ परलोक की भी चिन्ता करूँ कि चौबीसों घटे पेट के धंघों ही में लगी रहूँ पेट के लिए पाँच घण्टे बहुत हैं । पहले कुछ दिनों तक बारह घण्टे करती थी ; पर वह दशा स्थायी नहीं रह सकती थी। यहाँ श्राकर मैंने अपना स्वास्थ्य खो दिया। एक बार कठिन रोग में ग्रस्त हो गयी। क्या कमेटी ने मेरा दवा-दर्पन का खर्च दे दिया ? कोई बात पूछने भी आया ! फिर अपनी जान क्यों हूँ ? सुना है, घरों में मेरी वदगोई भी किया करती हैं। अमरनाथ मार्मिक भाव से बोले-यह वाते मुझे पहले ही मालूम यीं। दो साल और गुज़र गये। रात का समय था। कन्या-पाठशाला के ऊपरवाले कमरे में लाला गोपीनाथ मेज़ के सामने कुरसी पर बैठे हुए थे। सामने आनन्दी कोच पर लेटी हुई थी। मुख बहुत म्लान हो रहा था। कई मिनट तक दोनों विचार में मम थे। अन्त में गोपीनाथ बोले-मैंने पहले ही महीने में तुमसे कहा था कि मथुरा चली जायो । श्रानन्दी-वहाँ दस महीने क्योंकर रहती। मेरे पास इतने रुपये कहाँ ये और न तुम्हीं ने कोई प्रबन्ध करने का आश्वासन दिया। मैंने सोचा, तीन-चार महीने यहाँ और रहूँ । तब तक किफायत करके कुछ बचा लूँगी, तुम्हारी किताव से भी कुछ रुपये मिल जायँगे । तब मथुरा चली जाऊँगी ; मगर यह क्या मालूम था कि बीमारी भी इसी अवसर की ताक में बैठी हुई है। मेरी दशा दो-चार दिन के लिए भी सँभली और मैं चली। इस दशा में तो मेरे लिए यात्रा करना असम्भव है।
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