न्यागी का प्रेम ३३ > निष्काम जातिमक्ति ने उन्हें वशीभूत कर लिया है। वह मुँह पर तो उनको बड़ाई नहीं करतो; पर रईमों के घरों में बड़े प्रेम से उनका यशोगान करती हैं। ऐसे सच्चे सेवक श्राजकल कहाँ ? लोग कीर्ति पर जान देते हैं। जो थाड़ी-पद्रुत सेवा करते हैं, दिखावे के लिए। सची लगन किसी में नहीं। मैं लालाजी को पुरुप नहीं, देवता समझती हूँ। कितना सरल, सतोपमय जीवन है। न कोई व्यसन, न विलास । भोर से सायंकाल तक दौड़ते रहते हैं, न खाने का कोई समय, न सोने का समय । उस पर कोई ऐसा नहीं, जो उनके श्राराम का ध्यान रखे । बिचारे घर गये, जो कुछ किसी ने सामने रग्य दिया, चुपके से खा लिया, फिर छड़ी उठायी और किसी तरफ चल दिये। दूसरी औरत कदापि अपनी पत्नी की भाँति सेवा-सत्कार नहीं कर सकती । दशहरे के दिन थे। कन्या-पाठशाला में उत्सव मनाने की तैयारियों हो रही थीं। एक नाटक खेलने का निश्चय किया गया था। भवन खूब सजाया गया था। शहर के रईसों को निमन्त्रण दिये गये थे। यह कहना कठिन है कि किसका उत्साह बढ़ा हुआ था, बाईजी का या लाला गोपीनाथ का । गोपीनाथ सामग्रियाँ एकत्र कर रहे थे, उन्हें अच्छे ढग से सजाने का मार यानन्दी ने लिया था। नाटक भी इन्हीं ने रचा था । नित्य प्रति उसका अभ्यास कराती थी और स्वयं एक पार्ट ले रखा था। विजयादशमी या गयी। दोपहर तक गोपीनाथ फर्श और कुर्मियों का इन्तज़ाम करते रहे। जब एक बज गया और अब भी वह वहाँ से न टले तो आनन्दी ने कहा-लालाजी, बारको भोजन करने को देर हो रही है। अब सब काम हो गया है । जो कुछ बच रहा है, मुझपर छोड़ दीजिए। गोपीनाथ ने कहा-खातूंगा । मैं ठीक समय पर भोजन करने का पाबन्द नहीं हूँ। फिर घर तक कौन जाय । घटों लग जायेंगे। भोजन के उपरान्त आराम 1' करने को जी चाहेगा । शाम हो जायगी। श्रानन्दी-भोजन तो मेरे यहाँ तैयार है, ब्राह्मणी ने बनाया है। चलकर खा लीजिए और यहीं जरा देर श्रागम भी कर लीजिए। गोपीनाय - यहाँ क्या खा लूँ! एक वक्त न खाऊँगा, तो ऐसी कौन सी हानि दो जारगी? ३
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