२८३ दुराशा से०-चटनी खिलाकर पानी पिलाओ। इतना सत्कार बहुत है । होली का दिन है, यह भी एक प्रहसन रहेगा। द०-प्रहसन क्या रहेगा, कहीं मुख दिखाने योग्य न रहूंगा । आखिर तुम्हें यह क्या शरारत सूझी? से-फिर वही बात ! शरारत क्यों सूझती ! क्या तुमसे और तुम्हारे मित्रो से कोई बदला लेना था। लेकिन जब लाचार हो गयी तो क्या करती है तुम तो दस मिनट पछताकर और मुझ पर अपना मोध मिटाकर श्रानन्द से सोओगे । यहाँ तो मै तीन बजे से बैठी झीक रही है। और यह सब तुम्हारी करतूत है। द०--यही तो पूछता हूँ कि मैंने क्या किया ? से०-तुमने मुझे पिंजरे में बन्द कर दिया, पर काट दिये ! मेरे सामने दाना रख दो तो खाऊँ, मुघिया में पानी डाल दो तो पी, यह किसका फ़सूर है ? श्रा- द०-भाई, छिपी-छिपी बातें न करो । साफ़ साफ़ क्यों नहीं कहती ! -विदा होता हूँ, मौज उड़ाइए । नहीं, बाजार की दूकानें भी बन्द हो जायेंगी। खूब चमका दिया मित्र, फिर समझेगे । लाला ज्योतिस्वल्प तो वैठे-बैठे अपनी निराशा को खर्राटों से भुला रहे है । मुझे यह सन्तोप कहाँ ! तारे भी नहीं हैं कि बैठकर उन्हें ही गिनें । इस समय ता स्वादिष्ट पदार्थों को स्मरण कर रहा हूँ। द०-बन्धुवर, दो मिनट योर सतोप करो। श्राया । हो ! लाला ज्योतिस्वरूप से कह दो कि किसी हलवाई का दूकान से पूरिया ले आय । यहाँ कम पड़ गया है । श्राज दोपहर ही से इनकी तबीयत खराब हा गया है । मर मेज की दराज़ में रुपये रखे हुए है । से०-साफ साफ तो यहा है कि तुम्हार परदे ने मुझे पगुल बना दिया है। कोई मेरा गला भी घोट जाय तो फरियाद नहीं कर सकता। -फिर भी वही अन्योक्ति ! इस विषय का अन्त भी दागा या नहीं? से०--दियासलाई तो थी ही नहीं, फिर आग कैसे जलाता! द०-अहा ! मैंने जाते समय दियासलाई की डिविया जेब में रख की
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