२८२ मानसरोवर से०-हैं क्यों नहीं, चटनी बना ही डाली है और पानी भी पहले से तैयार है। द०-यह दिल्लगी तो हो चुकी। सचमुच बतलाओ, खाना क्यों नहीं पकाया ? क्या तबीयत खराब हो गई थी, अथवा किसी कुत्ते ने रसोई आकर अपवित्र कर दी थी। आ०-बाहर क्यों नहीं पाते हो भाई, भीतर ही भीतर क्या मिसकोट कर रहे हो ? अगर सब चीजें नहीं तैयार हैं, नहीं सही। जो कुछ तैयार हो वही लाओ। इस समय तो सादी पूरियों भी ख़स्ते से अधिक स्वादिष्ट जान पढ़ेंगी। कुछ लाओ, भला श्रीगणेश तो हो। मुझसे अधिक उत्सुक मेरे मित्र मुशी ज्योतिस्वरूप हैं। से०--भैया ने दावत के इन्तजार में आज दोपहर को भी खाना न खाया होगा। द०-बात क्यो टालती हो , मेरी बातों का जवाब क्यों नहीं देती ? से०--नहीं जवाब देती, क्या कुछ श्रापका कुर्ज खाया है या रसोई बनाने के लिए मैंडी हूँ ? द.--यदि में घर का काम करके अपने को दास नहीं समझता तो तुम घर का काम करके अपने को दासी क्यों समझती हो ! से०--मैं नहीं समझती, तुम समझते हो । द०-क्रोध मुझे आना चाहिये, उल्टी तुम बिगड़ रही हो । सेc--तुम्हें क्यों मुझपर क्रोध आना चाहिए ? इसलिए कि तुम पुरुष हो ? -नहीं, इसलिए कि तुमने आज मुझे मेरे मित्रों तथा सम्बधियों के सम्मुख नीचा दिखाया। से०-नीचा दिखाया तुमने मुझे कि मैंने तुम्हें ? तुम तो किसी प्रकार क्षमा करा लोगे, किन्तु कालिमा तो मेरे मुख लगेगी। श्रा०-मई, अपराध क्षमा हो मैं भी वहीं श्राता हूँ । यहाँ तो किसी पदार्थ की सुगन्ध तक नहीं आती। द०- क्षमा क्या करा लूंगा, लाचार होकर बहाना करना पड़ेगा।
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