पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२४८

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अधिकार-चिंता ( १ ) टामी यों देग्वने में तो बहुत तगड़ा था। मूंकता तो सुननेवालों के कानों के परदे फट जाते । डोल-डौल भी ऐमा कि अंधेरी रात में उस पर गवे का भ्रम हो जाता। लेकिन उसकी शानोचित वीरता किसी सग्रामक्षेत्र में प्रमाणित न होती थी। दो-चार दफ़े जब बाजार के लेंहियों ने उसे चुनौती दी, तो वह उनका गर्व मर्दन करने के लिए मैदान में आया; सोर देखनेवालों का कहना है कि जब तक लड़ा, जीवट मे लड़ा ; नखों और दोनों से ज्यादा चोटें उसकी दुम ने की। निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि मैदान किसके हाथ रहता, किन्तु जब उस दल को कुमक मँगानी पड़ी, तो रण-शास्त्र के नियमों के अनुमार विजय का श्रेय टामी ही को देना उचित और न्यायानुकूल जान पढ़ता है। टामी ने उस अवसर पर कौशल से काम लिया और दाँत निकाल दिये जो सधि की यानना थी। किन्तु तसे उसने ऐसे सनीति-विहीन प्रतिद्वन्द्वियों के मुँह लगना उचित न समझा। इतना शान्ति प्रिय होने पर भी टामी के शत्रुओं को संख्या दिनों-दिन चढ़ती जाती थी। उसके बराबरवाले उसमे इसलिए जलते कि वह इतना मोटा- ताजा होकर इतना भी क्यों है। बाजारी दल इसलिए जलता कि टामा के मारे घरों पर की हलियाँ भी न बवने पानी थीं। वह घड़ी-रात हे उठता और हल्वाइयों की दुकानों के सामने दोने और पत्तल, कसाईखाने में सामने की घड़ियाँ और छीछड़े चना डालता। अतएव इतने शत्रुयो के बीच में रहकर । यामी का जीवन सफटमय होता जाता था। महीनों बीत जाते और पेट-भर भोजन न मिलता। दो तीन बार उसे मनमाने भोजन करने को ऐसा प्रबल उत्कंठा हुई कि उमने सदिग्ध साधना द्वारा उसका पूरा करने की चेष्टा को ; पर जय परिणाम आशा के प्रतिकूल हुआ और स्वादिष्ट पाधों के बदते अरुचिकर दुलि यस्तुएँ भर-पेट खाने का मली-जिससे पेट के बदले कई दिन तक पीठ