पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२४५

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२६८ मानसरोवर का लक्ष्य बना हुआ था। कुछ बिगड़े दिल ऐसे भी थे, जो उसके मुंह पर थूकने में भी संकोच न करते थे । प्रात काल था । लखनऊ में आनंदोत्सव मनाया जा रहा था। बादशाही महल के सामने लाखों आदमी जमा थे । सब लोग बादशाह को यथायोग्य नजर देने आये थे। जगह-जगह गरीबों को भोजन कराया जा रहा था। शाही नौबतखाने में नौबत झड़ रही थी। दरबार सजा। बादशाह हीरे और जवाहर से जगमगाते, रत्न जटित श्राभूषणों से सजे हुए सिंहासन पर विराजे । रईसों और अमीरों ने नजरें गुजारी। कवि-जनो ने कसीदे पढे । एकाएक बादशाह ने पूछा-राजा बख्तावरसिंह कहाँ हैं १ कप्तान ने जवाब दिया-कैदखाने में । बादशाह ने उसी वक्त कई कर्मचारियों को भेजा कि राजा साहब को जेलखाने से इजत के साथ लायें। जब थोड़ी देर के बाद राजा ने आकर बादशाह को सलाम किया, तो वे तख्त से उतरकर उनसे गले मिले और उन्हें अपनी दाहिनी ओर सिंहासन पर बैठाया । फिर दरबार में खड़े होकर उनकी सुकीर्ति और राज-भक्ति की प्रशसा करने के उपरात अपने ही हाथों से उन्हें खिलअत पहनाई। राजा साहब के कुटुम्ब के प्राणी भी श्रादर और सम्मान के साथ बिदा किये गये। श्रत को जब दोपहर के समय दरबार बर्खास्त होने लगा तो बादशाह ने राजा साहब से कहा-आपने मुझ पर और मेरी सल्तनत पर जो एहसान किया है, उसका सिला ( पुरस्कार ) देना मेरे इमकान से बाहर है । मेरी आपसे यही इल्तिजा ( अनुरोध ) है कि आप वजारत का कलमदान अपने हाथ में लीजिए और सल्तनत का, जिस तरह मुनासिब समझिए, इंतजाम कीजिए। मैं आपके किसी काम में दखल न दूंगा । मुझे एक गोशे पड़ा रहने दीजिये । नमकहराम रोशन को भी मैं आपके सिपुर्द किये देता हूँ। श्राप इसे जो सजा चाहे, दें। मैं इसे कब का जहन्नुम मेज चुका होता, पर यह समझकर कि यह आपका शिकार है, इसे छोड़े हुए हूँ । लेकिन वख्तावरसिंह वादशाह के उच्छृखल स्वभाव से भलीभाँति परिचित