राज्य-भक्त २६५ खुद श्राप तो महल में हसीनों के साथ ऐश किया करते हैं, दूसरों को क्या गरज पड़ी है कि सल्तनत की फ़िक से दुबले हो? खूब, हम अपना खून जलायें और आप जशन मनायें ! ऐसे अहमक कहीं और रहते होंगे। बादशाह-(क्रोध से कॉपते हुए ) मि०....मैं तुम्हें हुक्म देता हूँ कि इस नमकहराम को अभी गोली मार दो। मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता । और, इसी वक्त जाकर इसकी सारी जायदाद जन्त कर लो। उसके खानदान का एक बच्चा भी जिंदा न रहने पाये। रोशन-मि०... मैं तुमको हुक्म देता हूँ कि इस मुल्क और कौम के दुश्मन, रैयत के कातिल और बदकार आदमी का फौरन गिरफ्तार कर लो। यह इस काबिल नहीं कि ताज और तहत का मालिक बने । इतना सुनते ही पाँचों अंग्रेज़ मुसाहयों ने, जो भेस बदले हुए साथ थे, बादशाह के दोनों हाथ पकड़ लिए और खींचते हुए गोमती नदी की ओर ले चले । तब बादशाह की आँखें खुली । समझ गये कि पहले ही से यह पड्यंत्र रचा गया था। इधर-उधर देखा, कोई आदमी नहीं। शोर मचाना व्यर्थ था । बादशाही का नशा उतर गया । दुरवस्था ही वह परीक्षामि है, जो मुन्नम्मे और रोगन को उतारकर मनुष्य का यथार्थ रूप दिखा देती है। ऐसे ही अवसरों पर विदित होता है कि मानव हृदय पर कृत्रिम भावों का कितना गहरा रंग चढ़ा होता है। एक क्षण में बादशाह की उद्दण्डता और घमएड ने दीनता और विनयशीलता का आश्रय लिया। बोले-मैंने तो आप लोगों की मरजी के खिलाफ ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसकी राह सजा मिले। मैंने आप लोगों को हमेशा अपना दोस्त समझा है । रोशन-तो हम लोग जो कुछ कर रहे हैं, वह भी आपके फ़ायदे ही के लिए कर रहे हैं। हम अापके सिर से सल्तनत का बोझ उतारकर आपको श्राजाद कर देंगे। तर आपके ऐश में खलल न पड़ेगा। श्राप बेफिक होकर इसीनों के साथ जिंदगी की बहार लूटियेगा। बादशा-तो क्या आप लोग मुझे तस्त ने उतारना चाहते हैं ? रोशन-नहीं, प्रारको बादशाही की जिम्मेदारियों से बाजाट कर देना चाहते हैं।
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