राज्य-भक २५३. . बादशाद ने एक अंग्रेज-मुसाहब से पूछा--तुमको मालूम है, मैं तुम्हारी' कितनी खातिर करता हूँ ? मेरी सल्तनत में किसी की मजाल नहीं कि वह किसी अँग्रज को कड़ी निगाहों से देख सके । अंग्रेज-मुसाहब ने सिर मुकाकर जवाब दिया-हम हुजुर को इस मिहरवानी को कभी नहीं भूल सकते। वा०--इमामहुसैन की कसम, अगर यहाँ कोई आदमी तुम्हें तकलीफ दे, तो मैं उसे फौरन जिंदा दीवार में चुनवा दें। बादशाह की श्रादत थी कि वह बहुधा अपनी अँग्रेजी टोपी हाथ में लेकर उसे उँगली पर नचाने लगते थे । रोज-रोज नाचते-नाचते टोपी में उँगली का घर हो गया था। इस समय जो उन्होंने टोपी उठाकर उँगली पर रखी, तो टोपी में छेद हो गया। बादशाह का ध्यान अंग्रेजों की तरफ़ था। बस्तावरसिंह यादशाह के मुँह से ऐसी बातें सुनकर कबाब हुए जाते थे। उक्त कथन में कितनी खुशामद, कितनी नीचता और अवध की प्रजा तथा राजों का कितना अपमान था! और लोग तो टोपी का छिद्र देखकर हँसने लगे, पर राजा बख्तावरसिंह के मुँह से अनायास निकल गया-हुजूर, ताज में सूराख हो गया। राजा साहब के शत्रुओं ने तुरन्त कानों पर उँगलियाँ रख लो। बादशाह को भी ऐमा मालूम हुआ कि राजा ने मुझ पर व्यग्य किया। उनके तेवर बदल गये । अंग्रेजों और अन्य सभासदों ने इस प्रकार काना-फूसी शुरू की, जैसे कोई महान् अनर्थ हो गया। राजा साहब के मुँह से अनर्गल शब्द अवश्य निकले। इसमें कोई सदेह नहीं था । संभव है, उन्होंने जान-बूझकर व्यग्य न किया हो, उनके दुःखी हदय ने साधारण चेतावनी को यह तीव्र रूप दे दिया हो; पर यात विगढ़ जरूर गयी थी । अब उनके शत्रु उन्हें कुचलने के ऐसे सुन्दर प्रव- सर को हाथ से क्यों जाने देते! राजा साहब ने सभा का यह रंग देखा, तो खून सर्द हो गया। समझ गये, आज शत्रुओं के पजे में फंस गया और ऐसा बुरा फँसा कि भगवान् ही निकालें, तो निकल सकता हूँ। बादशाह ने कोत याल मे लाल आँखें करके कहा- इस नमकहराम को फेद >
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