राज्य-भक्त संध्या का समय था। लखनऊ के बादशाह नासिरुद्दीन अपने मुसाहो' और दरवारियों के साथ बाग़ की सैर कर रहे थे। उनके सिर पर रन-जटित मुकुट की जगह अंग्रेजी टोपी थी। वस्त्र भी अंग्रेजी ही थे। मुसाहबों में पाँच अँग्रेज थे। उनमें से एक के कंधे पर सिर रखकर बादशाह चल रहे थे। तीन- चार हिंदुस्तानी भी थे। उनमें एक राजा वख्तावरसिह थे। वह अघेड़ श्रादमी ये। शरीर खूब गठा हुआ था। लखनवी पहनावा उन पर बहुत सजता था । मुख से विचार-शीलता झलक रही थी। दूसरे महाशय का नाम रोशनुद्दौला था। यह राज्य के प्रधान मंत्री ये । बड़ी-बड़ी मूठे और नाटा डील था, जिसे ऊँचा करने के लिए वह उनकर चलते थे। नेत्रों से गर्व टपक रहा था। शेप लोगों में एक कोतवाल था श्रोर दो बादशाह के रक्षक । यद्यपि अभी १६ वीं शताब्दी का श्रारम ही था, पर बादशाह ने अंग्रेज़ी रहन-सहन अख्तियार कर ली थी। भोजन भी प्रातः अंग्रेज़ी ही करते थे। अँग्रेज़ों पर उनका असीम विश्वास था । वह सदैव उनका पक्ष लिया करते थे। मजाल न थी कि कोई बड़े से बड़ा राजा या राजकर्मचारी किसी अँग्रेज़ से बराबरी करने का साहस कर सके। अगर किसी में यह हिम्मत थी, तो वह राजा बख्तावरसिंह थे। उनसे कपनी का बढ़ता हुआ अधिकार न देखा जाता था ; कपनी की उस सेना की संख्या जो उसने अवध के राज्य की रक्षा के लिए लखनऊ में नियुक्ति थी. दिन-दिन बढ़ती जाती थी। उसी परिमाण से सेना का व्यय भी बढ़ रहा था। राज-दरवार उसे चुका न सकने के कारण कपनी का ऋणी होता जाता था। बादशाही सेना की दशा हीन से हानतर होती जाती थी। उसमें न सगठन या, न बल । वरसों तक सिपाहियों का वेतन न मिलता था। शस्त्र सभी पुराने थे। वर्दी फटी हुई । कवायद का नाम नहीं । कोई उनका पूछनेवाला न था। अगर राजा यस्तावरसिंह वेतन वृद्धि या नये शस्त्रों के सम्बन्ध में कोई प्रयव करते,
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