आप-बीती २४७ १५ दिन के बाद मैने एक पत्र लिखकर कुशल-समाचार पूछे। कोई उत्तर न श्राया। १५ दिन के बाद फिर रुपयों का तकाज़ा किया । उसका भी कुछ जवाब न मिला । एक महीने बाद फिर तकाजा किया। उसका भी यही हाल ! एक रजिस्टरी पत्र भेजा । वह पहुँच गया, इसमें सन्देह नहीं ; लेकिन जवाब उसका भी न पाया । समझ गया, समझदार जोरू ने जो कुछ कहा था, वह अक्षरशः सत्य था । निराश होकर चुप हो रहा । इन पत्रों की मैंने पत्नी से चर्चा भी नहीं की और न उसी ने कुछ इस बारे में पूछा। ( २ ) इस कपट व्यवहार का मुझ पर वही असर पड़ा, जो साधारणतः स्वाभाविक रूप से पड़ना चाहिए था। कोई ऊँची और पवित्र श्रात्मा इस छल पर भी अटल रह सकती थी। उसे यह समझकर सन्तोप हो सकता था कि मैंने अपने कर्तव्य को पूरा कर दिया । यदि ऋणी ने ऋण नहीं चुकाया, तो मेरा क्या अपराध ! पर मै इतना उदार नहीं हूँ । यहाँ तो महीनों सिर खपासा हूँ, कलम घिसता हूँ, तब जाकर नगद-नारायण के दर्शन होते हैं। इसी महीने की बात है मेरे यंत्रालय में एक नया कंपोजीटर बिहार-प्रात से आया । काम में चतुर जान पड़ता था। मैंने उसे १५) मासिक पर नौकर रख लिया। पहले किसी अँगरेजी स्कूल में पढ़ता था। असहयोग के कारण पढ़ना छोड़ बैठा था । घरवालों ने किसी प्रकार की सहायता देने से इनकार किया। विवश होकर उसने जीविका के लिए यह पेशा अख्तियार कर लिया। कोई १७-१८ वर्ष की उम्र यो। स्वभाव में गंभीरता थी। बात-चीत बहुत सलीके से करता था । यहाँ आने के तीसरे दिन बुखार आने लगा। दो-चार दिन तो ज्यों-त्यों करके काटे, लेकिन जब बुख़ार न छूटा, तो घबरा गया । घर की याद आई । और कुछ न सही, घरवाले क्या दवा-दरपन भी न करेंगे। मेरे पास आकर बोला--महाशय, मैं बीमार हो गया हूँ। आप कुछ रुपये दे दें, तो घर चला जाऊँ। वहाँ जाते ही रुपयों का प्रबन्ध करके मेज दूंगा। वह वास्तव में बीमार था। मैं उससे भली-भाँति परिचित था। यह भी जानता था कि यहाँ रहकर वह कभी स्वास्थ्य-लाम नहीं कर सकता। उसे सचमुच
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