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२४० मानसरोवर जायदाद उसके न्योछावर कर दूं-प्यारे पण्डित ! मेरे अपराध क्षमा करो। मैं अन्धा था, अज्ञान था । अब मेरी बाँह पकड़ो। मुझे डूबने से बचायो। इस अनाथ बालक पर तरस खायो। हितार्थी और सम्बन्धियों का समूह सामने खड़ा था। कुँवर साहब ने उनकी ओर अधखुली आँखों से देखा। सच्चा हितैषी कहीं देख न पड़ा। सबके चेहरे पर स्वार्थ की झलक यी । निराशा से आँखें मूंद लीं। उनकी स्त्री फूट-फूटकर रो रही थी। निदान उसे लज्जा त्यागनी पड़ी। वह रोती हुई पास जाकर बोली-प्राणनाथ, मुझे और इस असहाय बालक को किस पर छोड़े जाते हो? कुँवर साहब ने धीरे से कहा-पण्डित दुर्गानाथ पर । वे जल्द आयेंगे। उनसे कह देना कि मैंने सब कुछ उनके भेंट कर दिया । यह अन्तिम वसीयत है ।