पछतावा २५३ क्या जानें, किताबी बातें स्कूलों ही के लिए हैं। दुनिया के व्यवहार का कानून दूसरा है । अच्छा, जो हुया सो हुआ । अब मैं चाहता हूँ कि इन बदमाशों को इस सरकशी का मजा चखाया जाय । आसामियों को आपने मालगुज़ारी की रसीदें तो नहीं दी हैं। दुर्गानाथ ( कुछ डरते हुए )-जी नहीं, रसीदें तैयार हैं, केवल आपके इस्ताक्षरों की देर है। कुँवर साहब ( कुछ संतुष्ट होकर)यह बहुत अच्छा हुया । शकुन अच्छे हैं । अब आप इन रसीदों को चिरागअली के सिपुर्द कीजिए । इन लोगों पर बकाया लगान की नालिश की जायगी, फसल नीलाम करा लूंगा । जब भूखे मरेंगे तब सूझेगी १ जो रुपया अब तक वसूल हो चुका है, वह बीज और ऋण के खाते में चढ़ा लीजिए। आपको केवल यह गवाही देनी होगी कि यह रुपया मालगुजारी के मद में नहीं, कर्ज के मद में वसूल हुअा है । बस! दुर्गानाथ चिन्तित हो गये । सोचने लगे कि क्या यहाँ भी उसी आपचि का सामना करना पड़ेगा जिससे बचने के लिए इतने सोच-विचार के बाद, इस शान्ति कुटीर को ग्रहण किया था ? क्या जान-बूझकर इन गरीबों की गर्दन पर छुरी फेरूँ, इसलिए कि मेरी नौकरी बनी रहे ? नहीं, यह मुझसे न होगा। बोले- क्या मेरी शहादत बिना काम न चलेगा? कुँवर साय (क्रोध से)-क्या इतना कहने में भी आपको कोई उज्र है ? दुर्गानाथ ( द्विविधा में पड़े हुए )-जी, यो तो मैंने आपका नमक खाया है। आपकी प्रत्येक प्राज्ञा का पालन करना मुझे उचित है, किन्नु न्यायालय में मैंने गवाही नहीं दी है । सम्भव है कि यह कार्य मुझसे न हो सके, अतः मुझे तो क्षमा ही कर दिया जाय । कुँवर साहब शासन के ढग से)--यह काम आपको करना पड़ेगा, इसमें 'हा-नहीं' की कोई श्रावश्यकता नहीं । प्राग आपने लगाई है । वुझायेगा फौन ? दुर्गानाय (दृढ़ता के साथ )-मैं झूठ कदापि नहीं बोल सकता, और न इस प्रकार शहादत दे सकता हूँ ! कुँवर साहव ( कोमल शन्दों में)-कृपानिधान, यह झूठ नहीं है। मैंने
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