पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/२०३

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२२८ मानसरोवर और किसी की नौकरी नहीं करूँगा । कुँवर विशालसिंहजी ने अभिमान से कहा- रईस की नौकरी नौकरी नहीं, राज्य है। मैं अपने चपरासियों को दो रुपया माहवार देता हूँ और वे तजेब के अँगरखे पहनकर निकलते हैं। उनके दरवाजों पर घोड़े बंधे हुए हैं। मेरे कारिन्दे पाँच रुपये से अधिक नहीं पाते, किन्तु शादी-विवाह वकीलों के यहाँ करते हैं। न जाने उनकी कमाई में क्या बरकत होती है। बरसों तनख्वाह का हिसाब नहीं करते। कितने ऐसे हैं जो बिना तन ख्वाह के कारिन्दगी या चपरासगीरी को तैयार बैठे हैं। परन्तु अपना यह नियम नहीं। समझ लीनिए ; मुख्तार-आम अपने इलाके में एक बड़े जमींदार से अधिक रोब रखता है। उसका ठाट बाट और उसकी हुक्मत छोटे-छोटे राजाओं से कम नहीं। जिसे इस नौकरी का चसका लग गया है, उसके सामने तहसीलदारी झूठी है। पण्डित दुर्गानाथ ने कुँवर साहब की बातों का समर्थन किया, जैसा कि करना उनको सभ्यतानुसार उचित था। वे दुनियादारी में अभी कच्चे थे, बोले-मुझे अब तक किसी रईस की नौकरी का चसका नहीं लगा है । मैं तो अभी कालेज से निकला आता हूँ। और न मैं इन कारणों से नौकरी करना चाहता हूँ जिनका कि आपने वर्णन किया। किन्तु इतने कम वेतन में मेरा निर्वाह न होगा। आपके और नौकर असामियों का गला दबाते होंगे । मुझसे मरते समय तक ऐसे कार्य न होंगे। यदि सच्चे नौकर का सम्मान होना निश्चय है, तो मुझे विश्वास है कि बहुत शीघ्र श्राप मुझसे प्रसन्न हो जायेंगे । कुंवर साइव ने बड़ी दृढ़ता से कहा- हाँ, यह तो निश्चय है कि सत्यवादी मनुष्य का आदर सब कहीं होता है, किन्तु मेरे यहाँ तनख्वाह अधिक नहीं दी जाती। नमींदार के इस प्रतिष्ठा शुन्य उत्तर को सुनकर पण्डितजी कुछ खिन्न हृदय, से बोले-तो फिर मजबूरी है । मेरे द्वारा इस समय कुछ कष्ट आपको पहुँचा हो तो क्षमा कीजिएगा। किन्तु मैं आपसे कह सकता हूँ कि ईमानदार श्रादमी श्रापको सस्ता न मिलेगा। कुँवर साहव ने मन में सोचा कि मेरे यहाँ सदा अदालत कचहरी लगी ही रहती है, सैकड़ों रुपये तो डिगरी और तजवीजों तथा और और अँगरेजी