पछतावा पण्डित दुर्गानाथ जब कालेज से निकले तो उन्हें जीवन-निर्वाह की चिंता उपस्थित हुई। वे दयालु और धार्मिक थे। इच्छा थी कि ऐसा काम करना चाहिए जिससे अपना जीवन भी साधारणतः सुखपूर्वक व्यतीत हो और दूसरों के साथ भलाई और सदाचरण का भी अवसर मिले । वे सोचने लगे-यदि किसी कार्यालय में क्लर्क बन जाऊँ तो अपना निर्वाह हो सकता है, किन्तु सर्व- साधारण से कुछ भी सम्बन्ध न रहेगा । वकालत में प्रविष्ट हो जाऊँ तो दोनों याते सम्भव हैं, किन्तु अनेकानेक यत्न करने पर भी अपने को पवित्र रखना कठिन होगा। पुलिस-विभाग में दीन पालन और परोपकार के लिए बहुत-से अवसर मिलते रहते हैं ; किन्तु एक स्वतन्त्र और सद्विचार-प्रिय मनुष्य के लिए वहाँ की हवा हानिप्रद है। शासन-विभाग में नियम और नीतियों की भरमार रहती है । कितना ही चाहो, पर वहाँ कड़ाई और डॉटडपट से बचे रहना अस- म्भव है। इसी प्रकार बहुत सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने निश्चय किया कि किसी जमींदार के यहाँ 'मुख्तारआम' बन जाना चाहिए । वेतन तो अवश्य कम मिलेगा; किन्तु दीन-खेतिहारो से रात दिन सम्बन्ध रहेगा, उनके साथ सद्व्यवहार का अवसर मिलेगा। साधारण जीवन-निर्वाह होगा और विचार दृढ़ होगे। कुँवर विशालसिंहजी एक सम्पत्तिशाली ज़मींदार थे। प० दुर्गानाथ ने उनके पास जाकर प्रार्थना की कि मुझे भी अपनी सेवा में रखकर कृतार्थ फीजिये। कुँवर साहब ने इन्हें सिर से पैर तक देखा और कहा -पण्डितजी आपको अपने यहाँ रखने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होती, किन्तु श्रापके योग्य मरे यहाँ फोई स्थान नहीं देख पढ़ता। दुर्गानाथ ने कहा-मेरे लिए किसी विशेष स्थान की आवश्यकता नहीं हर एक काम कर सकता है। वेतन आप जो कुछ प्रसन्नतापूर्वक देंगे, मैं चीकार करूँगा। मैंने तो यह सकल कर लिया है कि सिवा किसी रईस के
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