अमावास्या की रात्रि २१५ का जागीरदार हूँ। मेरे पूर्वजों पर अापके पूर्वजों ने बड़े अनुग्रह किये हैं। मेरी इस समय जो कुछ प्रतिष्ठा तथा सम्पदा है, सव अापके पूर्वजों की कृपा और दया का परिणाम है । मैंने अनेक स्वजनों से आपका नाम सुना था और मुझे बहुत दिनों से आपके दर्शनों की आकाक्षा यी । आज वह सुअसवर भी मिल गया। अब मेरा जन्म सफल हुआ। परिहत देवदत्त की आँखों में आंसू भर आये। पैतृक प्रतिष्ठा का अभिमान उनके हृदय का कोमल भाग था । वह दोनता जो उनके मुख पर छाई हुई थी, थोड़ी देर के लिए विदा हो गयी । वे गम्भीर भाव धारण करके वोले-यह आपका अनुग्रह है जो ऐसा कहते हैं । नहीं तो मुझ-जैसे कपूत में तो इतना भी योग्यता नहीं है जो अपने को उन लोगों की सन्तति कह सकें। इतने में नौकरों ने ऑगन में फर्श बिछा दिया । दोनों आदमी उस पर बैठे और बातें होने लगी, वे बातें जिनका प्रत्येक शब्द पण्डितजी के मुख को इस तरह प्रफुल्लित कर रहा था जिस तरह प्रातःकाल की वायु फूलों को खिला देती है। पण्डितजी के पितामह ने नवयुवक ठाकुर के पितामह को पच्चीस सहस्र रुपये कर्ज दिये थे। ठाकुर अब गया में जाकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध करना चाहता था, इसलिए जरूरी था कि उसके ज़िम्मे जो कुछ ऋण हो, उसकी एक-एक कौड़ी चुका दी जाय । ठाकुर को पुराने बही- खाते में यह ऋण दिखाई दिया । पच्चीस के अब पचहत्तर हज़ार हो चुके थे। वही ऋण चुका देने ले लिए ठाकुर आया था। धर्म ही वह शक्ति है जो अन्तःकरण में ओजस्वी विचारों को पैदा करती है । हाँ, इस विचार को कार्य में लाने के लिए एक पवित्र और बलवान् आत्मा की आवश्यकता है। नहीं तो वे ही विचार क्रूरता और पापमय हो जाते हैं । अन्त में ठाकुर ने कहा-~आपके पास तो वे चिट्ठियाँ होगी? देवदत्त का दिल बैठ गया। वे सँभलकर बोले-सम्भवतः हाँ । कुछ कह नहीं सकते। ठाकुर ने लापरवाही से कहा -हुँदिए, यदि मिल जाय तो हम लेते जायेंगे। पण्डित देवदत्तउठे, लेकिन हृदय ठडा हो रहा था । शंका होने लगी कि
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