पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१९०

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अमावास्या की रात्रि 1 दिवाली की सन्ध्या थी। श्रीनगर के घरों और खहहरों के भी भाग्य चमक उठे थे । कस्बे के लड़के और लड़कियाँ श्वेत थालियों में दीपक लिये मन्दिर की योर जा रही थीं। दीपों से उनके मुखारविन्द प्रकाशमान् घे। प्रत्येक गृह रोशनी से जगमगा रहा था। केवल पण्डित देवदत्त का सत परा भवन काली घटा के अन्धकार में गंभीर और भयंकर रूप में खड़ा था। गभीर इसलिए कि उसे अपनी उन्नति के दिन भूले न थे, भयंकर इसलिए कि यह जगमगाहट मानों उसे चिढ़ा रही थी। एक समय वह था जब कि ईर्षा भी उसे देख-देख- कर हाथ मलती थी और एक समय यह है जब कि घृणा भी उस पर कटाक्ष करती है । द्वार पर द्वारपाल की जगह अव मदार और एरण्ड के गृक्ष खड़े थे। दीवानखाने में एक मतंग सौह अकड़ता था। ऊपर के घरों में जहाँ सुन्दर रमणियो मनोहारी सङ्गीत गाती थीं, हाँ आज जगली कबूतरी के मधुर स्वर सुनाई देते थे। किसी अँगरेजी मदरसे के विद्यार्थी के आचरण की भाँति उसकी जड़ें हिल गयी थी और उसकी दीवारें किसी विधवा स्त्री के हृदय की भाँति विदीर्ण हो रही थी; पर समय को हम कुछ नहीं कह सकते । समय की निन्दा व्यर्थ और मूल है, यह मूर्खता और अदूरदर्शिता का फल था । अमावस्या की रात्रि थी। प्रकाश से पराजित होकर मानो अन्धकार ने उसी विशाल भवन में शरण ली थी। पण्डित देवदत्त अपने अर्ड अन्धकारवाले कमरे में मीन, परन्तु चिन्ता में निमग्न थे। आज एक महीने से उनकी पत्नी गिरिजा की ज़िन्दगी को निर्दय काल ने खिलवाड़ बना लिया है। पण्डितजी दरिद्रता और दुःख को भुगतने के लिए तैयार थे। भाग्य का भरोसा उन्हें धैर्य बँधाता था; किन्तु यह नयी विपत्ति सहन-शचि से बाहर थी। विचारे दिन के दिन गिरिजा के सिरहाने बैठ के उसके मुरझाये हुए मुख को देखकर फुटते और रोते थे। गिरिजा जब अपने जीवन से निराश होकर गेती तो वह उसे समझाते-गिरिजा, रोओ मत, शीघ्र ही अच्छी हो जायोगी ।