मानसरोवर प्रभा के सिर में चक्कर-सा आने लगा। बोली-शायद एक बार यह गाता हुआ मेरो वाटिका के सामने जा रहा था । उमा ने बुलाकर इसका गाना सुना था। । हरिश्चन्द्र ने पूछा-कैसा गाना था ? प्रभा के होश उड़े हुए थे। सोचती थी, राजा के इन सवालों में जरूर कोई बात है। देखू , लाज रहती है या नहीं। बोली-उसका गाना ऐसा बुरा न था । हरिश्चन्द्र ने मुस्कराकर कहा-क्या गाता था ! प्रभा ने सोचा, इस प्रश्न का उत्तर दे दूँ तो बाकी क्या रहता है। उसे विश्वास हो गया कि आज कुशल नहीं है। वह छत की श्रोर निरखती हुई बोली-सूरदास का कोई पद था। हरिश्चन्द्र ने कहा--यह तो नहीं- कर गये थोड़े दिन की प्रीति ! प्रभा की आँखो के सामने अँधेरा छा गया। सिर घूमने लगा, वह खड़ी न रह सकी, बैठ गयी और हताश होकर बोली-हाँ, यही पद था। फिर उसने कलेजा मजबूत करके पूछा-आपको कैसे मालूम हुआ ? हरिश्चन्द्र बोले-वह योगी मेरे यहाँ अकसर आया-जाया करता है। मुके भी उसका गाना पसन्द है। उसी ने मुझे यह हाल बताया था, किन्तु यह तो कहता था कि राजकुमारी ने मेरे गानों को बहुत पसन्द किया और पुनः आने के लिए आदेश किया। प्रभा को अब सच्चा क्रोध दिखाने का अवसर मिल गया। वह बिगड़कर वोली- यह बिलकुल झूठ है। मैंने उससे कुछ नहीं कहा- हरिश्चन्द्र बोले-यह तो मैं पहले ही समझ गया था कि यह उन महाशय की चालाकी है। हींग मारना गवैयों की आदत है , परन्तु इसमें तो तुम्हें इनकार नहीं कि उसका गाना बुरा न था ? प्रभा बोली-ना! अच्छी चीज को बुरी कौन कहेगा ? हरिश्चन्द्र ने पूछा-फिर सुनना चाहो तो उसे बुलवाऊँ। सिर के बल दौड़ा आयेगा। 'क्या उनके दर्शन फिर होगे ?' इस श्राशा से प्रभा का मुखमण्डल विकसित
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