१६८ मानसरोवर - । कहती। उनके सामने वह स्वयं हँसती, उसकी आँखें हँसती और आँखों का काजल हँसता था । किन्तु श्राह ! जब वह अकेली होती, उसका चचल चित्त उड़कर उसी कुण्ड के तट पर जा पहुँचता , कुण्ड का वह नीला-नीला पानी, उस पर तैरते हुए कमल और मौलसरी की वृक्षपक्तियों का सुन्दर दृश्य आँखों के सामने आ जाती। उमा मुसकराती और नजाकत से लचकती हुई आ पहुँचती, तब रसीले योगी की मोहनी छवि आँखों में आ बैठती, और सितार के सुलसित सुर गूंजने लगते-- कर गये थोड़े दिन की प्रीति तब वह एक दीर्घ निःश्वास लेकर बैठती और बाहर निकलकर पिंजरे में चहकते हुए पक्षियों के कलरव में शाति प्राप्त करती। इस मॉति यह स्वप्न तिरोहित हो जाता। ( ४ ) इस तरह कई महीने बीत गये थे । एक दिन राजा हरिश्चन्द्र प्रभा को अपनी चित्रशाला में ले गये । उसके प्रथम भाग में ऐतिहासिक चित्र थे । सामने ही शूरवीर महाराणा प्रतापसिंह का चित्र नजर आया। मुखारविंद से वीरता की ज्योति स्फुटित हो रही थी। तनिक और आगे बढ़कर दाहिनी ओर स्वामिभक्त जगमल, वीरवर सौगा और दिलेर दुर्गादास विराजमान थे। बायीं ओर उदार भीमसिंह बैठे हुये थे । राणाप्रताप के सम्मुख महाराष्ट्रकेसरी वीर शिवाजी का चित्र था । दूसरे भाग में कर्मयोगी कृष्ण और मर्यादा पुरुषोत्तम राम विराजते थे । चतुर चित्रकारों ने चित्र-निर्माण में अपूर्व कौशल दिखलाया था । प्रभा ने प्रताप के पाद पद्मों को चूमा और वह कृष्ण के सामने देर तक नेत्रों में प्रेम और श्रद्धा के आँसू-भरे मस्तक झुकाये खड़ी रही । उसके हृदय पर इस समय कलुषित प्रेम का भय खटक रहा था। उसे मालूम होता था कि यह उन महापुरुषों के चित्र नहीं, उनकी पवित्र आत्माएँ हैं। उन्हीं के चरित्र से भारतवर्ष । का इतिहास गौरवान्वित है। । भारत के बहुमूल्य जातीय रत्न, उच्चकोटि के जातीय स्मारक और गगनमेदी जातीय तुमुल ध्वनि है। ऐसी उच्च आत्माओं के सामने खड़े होते उसे सकोच होता था। आगे वही दूसरा भाग सामने आया । यहाँ ज्ञानमय बुद्धि योग-साधन में बैठे हुए देख पड़े। उनकी दाहिना
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