पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१८

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राजा-हरदौल

दिये । इतर में बसी हुई रेशम की साड़ी अलग कर दी। मोतियों से भरी माँग खोल दी और वह खूब फूट-फूटकर रोई । हाय ! यह मिलाप की रात वियोग की रात से भी विशेष दुखःदायिनी है । भिखारिनी का भेष बनाकर रानी शीश- महल की ओर चली । पैर आगे बढ़ते थे, पर मन पीछे हटा जाता था । दरवाजे तक आयी, पर भीतर पैर न रख सकी। दिल धड़कने लगा। ऐसा जान पड़ा मानों उसके पैर थर्रा रहे हैं। राजा जुझारसिंह बोले "कौन है ?-कुलीना ! भीतर क्यों नहीं आ जाती ?"

कुलीना ने जी कड़ा करके कहा - महाराज, कैसे आऊँ ? मैं अपनी जगह क्रोध को बैठा पाती हूँ।

राजा-यह क्यों नहीं कहतीं कि मन दोषी है, इसीलिए आँखें नहीं मिलने देता?

कुलीना-निस्सन्देह मुझसे अपराध हुआ है, पर एक अबला आपसे क्षमा का दान माँगती है।

राजा-इसका प्रायश्चित्त करना होगा।

कुलीना-क्योंकर ?

राजा-हरदौल के खून से

कुलीना सिर से पैर तक काँप गयी । बोली-क्या इसीलिए कि आज मेरी भूल से ज्योनार के थालों में उलट-फेर हो गया ?

राजा - नहीं, इसलिए कि तुम्हारे प्रेम में हरदौल ने उलट-फेर कर दिया। जैसे आग की आँच से लोहा लाल हो जाता है, वैसे ही रानी का मुँह लाल हो गया । क्रोध की अग्नि सद्भावों को भस्म कर देती है, प्रेम और प्रतिष्ठा, दया और न्याय सब जल के राख हो जाते हैं। एक मिनट तक रानी को ऐसा मालूम हुआ, मानो दिल और दिमाग दोनों खौल रहे हैं ; पर उसने आत्मदमन की अन्तिम चेष्टा से अपने को सँभाला, केवल इतना बोली-हरदौल को मैं अपना लड़का और भाई समझती हूँ।

राजा उठ बैठे और कुछ नर्म स्वर से बोले-नहीं, हरदौल लड़का नहीं है, लड़का मैं हूँ, जिसने तुम्हारे ऊपर विश्वास किया । कुलीना, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मुझे तुम्हारे ऊपर घमंड था। मैं समझता था, चाँद-सूर्य टल