१६४ मानसोरवर थोड़ी देर में रागिया भीतर आया-सुन्दर सजीले बदन का नौजवान था। नगे पैर, नगे सिर, कन्धे पर मृगचर्म, शरीर पर एक गेरुआ वस्त्र, हाथों में एक सितार। मुखारविन्द से तेज छिटक रहा था। उसने दबी हुई दृष्टि से दोनों कोमलागी रमणियों को देखा और सिर झुकाकर बैठ गया । प्रभा ने झिझकती हुई आँखों से देखा और दृष्टि नीची कर ली। उमा ने कहा-योगीजी, हमारे बड़े भाग्य थे कि आपके दर्शन हुए, हमको भी कोई पद सुनाकर कृतार्थ कीजिए। योगी ने सिर झुकाकर उत्तर दिया-हम योगी लोग नारायण का भजन करते हैं । ऐसे-ऐसे दरबारों में हम भला क्या गा सकते हैं, पर आपकी इच्छा है तो सुनिए- कर गये थोड़े दिन की प्रीति कहाँ वह प्रीति, कहाँ यह बिछुरन, कहाँ मधुवन की रीति, कर गये थोड़े दिन की प्रति । योगी का रसीला करुण स्वर, सितार का सुमधुर निनाद, उस पर गीत का माधुर्य, प्रभा को वेसुध किये देता था। इसका रसज्ञ स्वभाव और उसका मधुर रसीला गान, अपूर्व सयोग था। जिस भाति सितार की ध्वनि गगनमण्डल में प्रतिध्वनित हो रही थी, उसी भाँति प्रभा के हृदय में लहरों की हिलोरें उठ रही थीं। वे भावनाएँ जो अब तक शान्त यी, जाग पड़ीं। हृदय सुख स्वप्न देखने लगा। सतीकुण्ड के कमल तिलिस्म की परियों बन-बनकर मँडराते हुए भौरों से कर जोड़ सजल-नयन हो कहते थे- कर गये थोड़े दिन की प्रीति सुर्ख और हरी पत्तियों से लदी हुई डालियाँ सिर झुकाये चहकते हुए पक्षियों से रो-रोकर कहती थीं- कर गये थोड़े दिन की प्रीति और राजकुमारी प्रभा का हृदय भी सितार की मस्तानी तान के साथ गूंजता था- कर गये थोड़े दिन की प्रीति 1
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