९६० मानसरोवर जानप्रकाश के सिवा उसके पास और किसी के पत्र न आते थे । आज ही उसका पत्र आ चुका था । यह दूसरा पत्र क्यों ? किसी अनिष्ट की श्राराका हुई। पत्र लेकर पढ़ने लगा। एक क्षण में पत्र उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ा और वह सिर थामकर बैठ गया कि जमीन पर न गिर पड़े। यह देवप्रिया की विषयुक्त लेखनी से निकला हुश्रा जहर का प्याला था, जिसने एक पल में उसे सज्ञाहीन कर दिया। उसकी सारी मर्मान्तक व्यथा-- --क्रोध, नैराश्य, कृतघ्नता, ग्लानि- केवल एक ठही साँस में समाप्त हो गयी। वह जाकर चारपाई पर लेट रहा । मानसिक व्यथा आग से पानी हो गयी | हा! सारा जीवन नष्ट हो गया! मैं ज्ञानप्रकाश का शत्रु । मैं इतने दिनों से केवल उसके जीवन का मिट्टी में मिलाने के लिए ही प्रेम का स्वाँग भर रहा हूँ । भगवान् ! इसके तुम्ही साक्षी हो! तीसरे दिन फिर देवप्रिया का पत्र पहुँचा । सत्यप्रकाश ने उसे लेकर फाड़ डाला । पढ़ने की हिम्मत न पड़ी। एक ही दिन पीछे तीसरा पत्र पहुँचा । उसका भी वही अन्त हुआ। फिर वह एक नित्य का कर्म हो गया। पत्र आता और फाड़ दिया जाता । किन्तु देवप्रिया का अभिप्राय बिना पढे ही पूरा हो जाता था-सत्यप्रकाश के मर्मस्थान पर एक चोट और पड़ जाती थी। एक महीने की भीषण हार्दिक वेदना के बाद सत्यप्रकाश को जीवन से घृणा हो गयी । उसने दूकान बन्द कर दी, बाहर आना-जाना छोड़ दिया । सारे दिन खाट पर पड़ा रहता। वे दिन याद आते, जब माता पुचकारकर गोद में बिठा लेती और कहती, 'वेटा ! पिताजी सन्ध्या समय दफ्तर से आकर गोद में उठा लेते और कहते 'भैया ! माता की सजीव मूर्ति उसके सामने आ खड़ी होती , ठीक वैसी ही जब वह गगा-स्नान करने गयी थी। उसकी प्यार- भरी बातें कानों में आने लगती। फिर वह दृश्य सामने आ जाता, जब उसने नववधू माता को 'अम्मा' कहकर पुकारता था । तब उसके कठोर शब्द याद आ जाते, उसके क्र ध से भरे हुए विकराल नेत्र आँखों के सामने श्रा जाते। उसे अब अपना सिसक सिसककर रोना याद आ जाता। फिर सौरगृह का दृश्य सामने आता । उसने कितने प्रेम से बच्चे को गोद लेना चाहा था ! तब
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