गृह-दाद १८७ प्रकाश अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहा। माता का रोना-धोना निष्फल हुआ। हॉ, उसने माता की एक बात मान ली-बद्द भाई से मिलने कलकत्ता न गया । तीन साल में घर में बड़ा परिवर्तन हो गया। देवप्रिया की तीन कन्याओं का विवाह हो गया । अब घर में उसके सिवा कोई स्त्री न थी। सूना घर उसे फाढ़े खाता था । जब वह नैराश्य और क्रोध से व्याकुल हो जाती, सत्यप्रकाश को सूर जी भरकर कोसती! मगर दोनों भाइयों में प्रेम-पत्र-व्यवहार बराबर होता रहता था। देवप्रकाश के स्वभाव में एक विचित्र उदासीनता प्रकट होने लगी। उन्होंने पेन्शन ले ली थी और प्रायःधर्मग्रन्थों का अध्ययन किया करते थे । ज्ञानप्रकाश ने भी 'श्राचार्य की उपाधि प्राप्त कर ली थी और एक विद्यालय में अध्यापक हो गये थे | देवप्रिया अब ससार में अकेली थी। देवप्रिया अपने पुत्र को गृहस्थी की ओर खींचने के लिए नित्य टोने-टोटके किया करती । विरादरी में कौन-सी कन्या सुन्दरी है, गुणवती है, सुशिक्षिता है- उसका बखान किया करती, पर ज्ञानप्रकाश को इन बातों के सुनने की भी फुर- सत न थी। मोहल्ले के और घरों में नित्य ही विवाह होते रहते थे। बहुएँ आती थीं, उनकी गोद में बच्चे खेलने लगते थे, घर गुलजार हो जाता था। कहीं विदाई होती थी, कहीं वघाइयाँ आती थीं, कहीं गाना-बजाना होता था, कही वाजे बजते थे। यह चहल-पहल देखकर देवप्रिया का चित्त चंचल हो जाता । उसे मालूम होता, मै ही संसार में सबसे अभागिनी हूँ। मेरे ही मान्य मे यह सुग्य भोगना नहीं बदा है। भगवान्, ऐसा भी कोई दिन आयेगा कि मैं अपनी बहू का मुखचन्द्र देखेंगी, उसके बालकों को गोद में खिलाऊँगी। वह भी कोई दिन होगा कि मेरे घर में भी पानन्दोत्सव के मधुर गान की ताने उठेंगी! रात दिन ये ही बातें सोचते सोचते देवप्रिया की दशा उन्मादिनी की सी हो गई । श्राप ह। आप सत्यप्रकाश को कोसने लगती। वही मेरे प्राणों का घातक है। तही- नता उन्माद का प्रधान गुण है। तल्लीनता अत्यन्त रचनाशील होती है। यह अाकाश म देवताओ क विमान उड़ान लगती है। अगर भोजन में नमक तेज तो यह शत्रु ने कोइ रोड़ा रख दिया होगा। देवप्रिया को अब कभी- . हो गया,
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