गृह-दाह १८९ मनोयार्डर आदि लिखने का व्यवसाय करने लगा। पहिले कई दिन तो उसको इतने पैसे भी न मिले कि भर-पेट भोजन करता; लेकिन धीरे-धीरे ग्रामदनी बढ़ने लगी। वह मजदूरों से इतने विनय के साथ बातें करता और उनके समाचार इतने विस्तार से लिखता कि बस वे पत्र को सुनकर बहुत प्रसन्न होते । अशिक्षित लोग एक ही बात को दो दो तोन-तीन चार लिखाते हैं। उनकी दशा ठीक रोगियों को-सी होती है, जो वैद्य से अपनी व्यथा और वेदना का वृत्तान्त कहते नहीं थकते । सत्यप्रकाश सूत्र को व्याख्या का रूप देकर मजदूरों को मुग्ध कर देता था। एक सन्तुष्ट होकर जाता, तो अपने कई अन्य भाइयों को खोज लाता । एक ही महीने में उसे १) राज़ मिलने लगा। उसने धर्मशाला से निकलकर शहर से बाहर ५) महीने पर एक छोटी-सा कोठरी ले ली। एक जून खाता । वर्तन अपने हाथों से धोता। जमीन पर सोता। उसे अपने निर्वाचन पर ज़रा भी खेद और दुःख न था । घर के लोगों को कभी याद न आती। वह अपनी दशा पर सन्तुष्ट या । केवल ज्ञानप्रकाश की प्रेमयुक्त बातें न भूलतीं । अन्धकार में यही एक प्रकाश था । विदाई का अन्तिम दृश्य आँखों के सामने फिरा करता। जीविका से निश्चिन्त होकर उसने ज्ञानप्रकाश को एक पत्र लिखा । उत्तर आया तो उसके आनन्द की सीमा न रही। ज्ञान् मुझे याद करके रोता है, मेरे पास आना चाहता है, स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं है । प्यासे को पानी से जो तृप्ति होती है, यही तृप्ति इन पत्र से सत्यप्रकाश को हुई । मैं अकेला नहीं हैं, कोई मुझे भी चाहता है-मुझे भी याद करता है। उस दिन से सत्यप्रकाश को यह चिन्ता हुई कि जान के लिए कोई उपहार मे । युवकों को मित्र बहुत जल्द मिल जाते हैं । सत्यप्रकाश की भी कई युवको से मित्रता हो गई थी। उनके साथ कई बार सिनेमा देवने गया । कई बार सूटो-भग, शराब कसाब की मी टहरी । श्राईना, तेल, कवी का शौक भी पैदा हुआ उता देता । यद वेग से नैतिक पतन श्रीर शारीरिक विनाश की ओर दौड़ा चला जाता था। इस प्रेम पत्र ने उसके पैर पकड लिये । उमदार के प्रयास ने इन दुर्व्यसनो को तिराहित करना शुरू किया । सिनेमा का चसका टूटा, मित्रों का हौले-वाल करके टालने लगा। भोजन भी रुखा-सूवा करने लगा। धन-संचय की चिन्ता ने सारी इच्छाओं को परास्त कर दिया उसने जो कुछ पाता,
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