१६८ मानसरोवर मुझे यह आवेदनपत्र मिला है, जिसे मैं आप सजनों की सेवा में उपस्थित करता हूँ। निवेदक ने तुलसीदास की केवल यह चौपाई लिख दी है- "आपत-काल परखिए चारी । धीरज धर्म मित्र अरु नारी ॥" महाराज ने पूछा-यह पत्र किसने मेजा है ? 'एक भिखारिनी ने। 'भिखारिनी कौन है ? 'महारानी चन्द्रकुंवरि । कड़बड़ खत्री ने आश्चर्य से पूछा-जो हमारी मित्र अँगरेज सरकार के विरुद्ध होकर भाग आई है ? राणा जगबहादुर ने लज्जित होकर कहा-जी | यद्यपि हम इसी विचार को दूसरे शब्दों में प्रकट कर सकते हैं । कड़बड़ खत्री-अँगरेज़ों से हमारी मित्रता है और मित्र के शत्रु की सहायता करना मित्रता की नीति के विरुद्ध है। जनरल शमशेर बहादुर-ऐसी दशा में इस बात का भय है कि अँगरेजी सरकार से हमारे सम्बन्ध टूट न जाय । राजकुमार रणवीरसिंह-हम यह मानते हैं कि अतिथि-सत्कार हमारा धर्म है, किन्तु उसी समय तक, जब तक कि हमारे मित्रों को हमारी ओर से शका करने का अवसर न मिले । इस प्रसग पर यहाँ तक मतभेद तथा वाद-विवाद हुश्रा कि एक शोर सा मच गया और कई प्रधान यह कहते हुए सुनाई दिये कि महारानी का इस समय आना देश के लिए कदापि मगलकारी नहीं हो सकता । तव राणा जगबहादुर उठे । उनका मुख लाल हो गया था। उनका सद्विचार क्रोध पर अधिकार जमाने के लिए व्यर्थ प्रयत्न कर रहा था । वे बोले-भाइयों, यदि इस समय मेरी बातें आप लोगों को अत्यन्त कड़ी जान पड़े तो मुझे क्षमा कीजिएगा, क्योंकि अब मुझमें अधिक श्रवण करने की शक्ति नहीं है। अपनी जातीय साहसहीनता का यह लजाजनक दृश्य अब मुझसे नहीं देखा जाता । यदि नेपाल के दरबार में इतना भी साहस नहीं कि वह अतिथि-सत्कार और
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