जुगुनू की चमक चलने लगी, शोक और अन्धकार-मय स्वप्न को माँति जो ध्यान की तरंगों के साथ बहा चला जाता हो। नाव के हिलने से मल्लाह चौंककर उठ बैठा। ओ मलते मलते उसने सामने देखा तो पटरे पर एक त्री हाय में डॉड लिये बैठी है। घरगकर पृछात कीन है रे ? नाव कहाँ लिये जाती है ? रानी 'इँस पड़ी। भय के अन्त को साहस कहते हैं । बोलो-सच बताऊँ या झूठ ? मल्लाह कुछ भयभीत-सा होकर बोला -सच बताया जाय। रानी बोली-अच्छा तो सुनो । मैं लाहौर की रानी चन्द्रकुँवरि है। इसी किले में कैदी थी। आज भागी जाती हूँ। मुझे जल्दी बनारस पहुचा दे | तुझे निहाल कर दूंगी और यदि शरारत करेगा तो देख, इस कटार से सिर काट दूंगी। सबेरा होने से पहले मुझे बनारस पहुंचना चाहिए । यह धमकी काम कर गयो। मल्लाह ने विनीत माव से अपना कम्बल विका दिया और तेजी से दौड चलाने लगा। किनारे के वृक्ष और ऊपर जगमगाते हुए तारे साथ-साथ दौड़ने लगे। ( ३ ) प्रातःकाल चुनार के दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य अचम्भित और व्याकुल था । सन्तरी, चौकीदार और लौंडियों सब सिर नीचे किये दुर्ग के स्वामी के सामने उपस्थित थे। अन्वेषण हो रहा था; परन्तु कुछ पता न चलता था। उधर रानी बनारस पहुँची । परन्तु वहाँ पहले से ही पुलिस और सेना का जाल बिछा हुआ था। नगर के नाके बन्द थे । रानी का पता लगानेवाले के लिए एक बहुमूल्य पारितापिक की सूचना दी गयी थी। वन्दीगृह से निकलकर रानी को ज्ञात हो गया कि वह और दृढ़ कारागार में है। दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य उसका आशाकारी था । दुर्ग का स्वामी भी उसे सामान की दृष्टि से देखता था। किन्तु श्राज स्वतत्र होकर भी उसके श्रोठ बन्द थे। उसे सभी स्थानों में शत्रु देख पहते थे। पंखरहित पदी को रिजरे के कोने में ही सुप है। पुलिस के अफसर प्रत्येक आने-जानेवालों को ध्यान से देखते थे, किन्तु उस भिन्दारिनी की पोर किसो का धान नहीं जाता था, जो एक फटी हुई साड़ी पहने, यात्रियों के पोछे-गछे धीरे-धीरे, सिर मुकाये गला की ओर चली आ रही
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