२५६ मानसरोवर विमल-यह देखता क्या कहूँ ? माँ-स्वभाव ही ऐसा है, तो कोई क्या करे ? विमल-सुरेश ने मेरा हुलिया क्यों लिखाया था ? माँ- तुम्हारी खोज लेने के लिए। उन्होंने दया न की होती, तो आज घर में किसी को जीता न पाते । विमल-बहुत अच्छा होता । शीतला ने ताने से कहा-अपनी ओर से तो तुमने सबको मार ही डाला या । फूलों की सेज नहीं बिछा गये थे । विमल-अब तो फूलों की सेज ही बिछी हुई देखता हूँ। शीतला-तुम किसी के भाग्य के विधाता हो ? विमलसिंह उठकर क्रोध से कॉपता हुश्रा बोला-अम्माँ, मुझे यहाँ से ले चलो। मैं इस पिशाचिनी का मुँह नहीं देखना चाहता। मेरी आँखों में खून उतरता चला आता है । मैंने इस कुल कलकिनी के लिए तीन साल तक जो कठिन तपस्या की है, उससे ईश्वर मिल जाता ; पर इसे न पा सका! यह कहकर वह कमरे से निकल आया और माँ के कमरे में लेट रहा। मों ने तुरन्त उसका मुंह और हाथ पैर धुलाये। वह चूल्हा जलाकर पूरियाँ पकाने लगी। साथ-साथ घर की विपत्ति-कथा भी कहती जाती थी। विमल के हृदय में सुरेश के प्रति जो विरोधामि प्रज्वलित हो रही थी, वह शात हो गयी, लेकिन हृदय-दाह ने रक्त-दाह का रूप धारण किया। जोर का बुखार चढ़ पाया । लबी यात्रा की थकान और कष्ट तो था बरसों के कठिन श्रम और तप के बाद वह मानसिक सताप और भी दुस्सह हो गया । सारी रात वह अचेत पड़ा रहा। माँ बैठी पखा झलती और रोती थी। दूसरे दिन भी वह वेहोश पड़ा रहा । शीतला उसके पास एक क्षण के लिए भी न श्राई । इन्होंने मुझे कौन सोने के कौर खिला दिये हैं, जो इनकी धौंस सहूँ ! यहाँ तो 'जैसे कता घर रहे, वैसे रहे बिदेस ।' किसी की फूटी कौड़ी नहीं जानती । बहुत ताव दिखाकर तो गये थे ? क्या लाद लाये ? सध्या के समय सुरेश को खबर मिली । तुरन्त दोंड़े हुए श्राये । आज दो महीने के बाद उन्होंने इस घर में कदम रखा। विमल ने पाखें खोली, पहचान
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