१५6 मानसरोवर है। पति वियोग मे भी गहनों के लिए इतनी लालायित है ! बोले-अच्छा, मैं तुम्हें गहने बनवा दूंगा। यह वाक्य कुछ अपमानसूचक स्वर में कहा गया था , पर शीतला की आँखें आनन्द सजल हो श्रायौं, कठ गद्गद हो गया। उसके हृदय-नेत्रों के सामने मगला के रन-जटिल आमपणो का चित्र खिंच गया। उसने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से सुरेश को देखा । मुँह से कुछ न बोली , पर उसका प्रत्येक श्रग कह रहा था-मैं तुम्हारी हूँ ! कोयल आम की डालियों पर बैठकर, मछली शीतल निर्मल जल में क्रीड़ा करके और मृग शावक विस्तृत हरियालियों में छलाँगे भरकर इतने प्रसन्न नहीं होते, जितना मंगला के आभूषणों को पहनकर शीतला प्रसन्न हो रही है। उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते । वह दिन-भर आईने के सामने खड़ी रहती है , कभो केशों को संवारती है, कभी सुरमा लगाती है। कुहरा फट गया है और निर्मल स्वच्छ चाँदनी निकल आयी है। वह घर का एक तिनका मी नहीं उठाती । उसके स्वभाव में एक विचित्र गर्व का संचार हो गया है। लेकिन शृगार क्या है ? सोई हुई काम-वासना को जगाने का घोर नाद, उद्दीपना का मन्त्र । शीतला जब नख-शिख से सजकर बैठती है, तो उसे प्रबल इच्छा होती है कि मुझे कोई देखे। वह द्वार पर आकर खड़ी हो जाती है। गाँव की स्त्रियो की प्रशसा से उसे संतोष नहीं होता। गाँव के पुरुषा को वह शृंगाररस-विहीन समझती है। इसलिए सुरेशसिह को बुलाती है। पहले वह दिन में एक बार आ जाते थे , अब शातला के बहुत अनुनय-विनय करने पर भी नहीं आते। पहर रात गयी थी । घरों के दीपक बुझ चुके थे । शीतला के घर मे दीपक जल रहा था । उसने कुँवर साहब के बगीचे से वेले के फूल मँगवाये थे और बैठी हार Dथ रही थी-अपने लिए नहीं, सुरेश के लिए । प्रेम के सिवा एहसान का बदला देने के लिए उसके पास और था ही क्या ? एकाएक कुत्तों के मूंकने की आवाज सुनाई दी, और दम भर में विमलसिह ने मकान के अन्दर कदम रखा । उनके एक हाथ में संदूक था, दूसरे हाय
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