मानसरोवर आदमी-लजित होकर) २००) नहीं, २०००) भी देता, तो न बताता। मुझे ऐसा विश्वासघात करनेवाला मत समझो | जब जी चाहे परख लो । मजदूरों में यों वाद-विवाद होता ही रहा, विमल आकर अपनी कोठरी में लेट गया । वह सोचने लगा-अब क्या करूँ १ जब सुरेश जैसे सजन की नीयत बदल गयीं, तो अब किसका भरोसा करूँ ! नहीं, अब बिना घर गये काम नहीं चलेगा। कुछ दिन और न गया, तो फिर कहीं का न हूँगा । दो साल और रह जाता, तो पास में पूरे ५०००) हो जाते । शीतला की इच्छा कुछ पूरी हो जाती । अभी तो सब मिलाकर ३०००) ही होंगे । इतने में उसकी अभिलाषा न पूरी होगी। खैर, अभी चलूँ, छः महीने में फिर लौट आऊँगा। अपनी जायदाद तो बच जायगी। नहीं छ' महीने रहने का क्या काम है। जाने-आने में एक महोना लग जायगा । घर में १५ दिन से ज्यादा न रहूँगा । वहाँ कौन पूछता है, आऊँ या न्हूँ, मकैं या जीऊँ, वहाँ तो गहनों से प्रेम है । इस तरह मन में विचार करके वह दूसरे दिन रगून से चल पड़ा । ( ३ ) ससार कहता है कि गुण के सामने रूप की कोई हस्ती नहीं। हमारे नीति- शास्त्र के ग्राचार्यों का भी यही कथन है , पर वास्तव में यह कितना भ्रम मूलक है ? कुँवर सुरेशसिंह की नव-वधू मगलाकुमारी गृह कार्य में निपुण, पति के इशारे पर प्राण देनेवाली, अत्यन्त विचारशीला, मधुर-भाषिणी और धर्मभीरु स्त्री थी, पर सौंदर्य-विहीन होने के कारण पति की आँखों में काँटे के समान खटकती थी। सुरेशसिंह बात-बात पर उससे झुंझलाते, पर घड़ी-भर में पश्चात्ताप के वशीभूत होकर उससे क्षमा माँगते, किन्तु दूसरे ही दिन फिर वही कुत्सित व्यापार शुरू हो जाता । विपत्ति यह थी कि उनके पाचरण अन्य रईसों की भाति भ्रष्ट न थे। वह दम्पति जीवन ही में आनन्द, सुख शाति, विश्वास प्रायः सभी ऐहिक और पारमार्थिक उद्देश्य पूरा करना चाहते थे । और दाम्पत्य सुख से वचित होकर उन्हें अपना समस्त जीवन नीरस, स्वाद हीन और कुठित जान पड़ता था । फल यह हुआ कि मगला को अपने ऊपर विश्वास न रहा । वह अपने मन से कोई काम करते हुए डरती कि स्वामी नाराज़ होंगे। स्वामी को खुश रखने के लिए अपनी भूलों को छिपाती, बहाने करती, झूठ बोलती।
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