पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१२२

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पाप का अभिकुण्ड १३७ धर्मसिंह-तेगा खींचो। पृथ्वीसिंह-मैंने उसे नहीं देखा। धर्मसिंह-वह तुम्हारे सामने खड़ा है। वह दुष्ट कुकर्मी धर्मसिंह ही है। पृथ्वीसिंह-(घवहाकर ) ऐं तुम!-मैं- धर्मसिंह राजपूत, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो। इतना सुनते ही पृथ्वीसिंह ने बिजली की तरह कमर से तेगा खींच लिया और उसे धर्मसिंह के सीने में चुभा दिया । मूठ तक तेगा चुभ गया। खून का फबारा बह निकला । धर्मसिंह जमीन पर गिरकर धीरे से बोले-पृथ्वीसिंह, मैं तुम्हारा बहुत कृतज्ञ है। तुम सच्चे वीर हो । तुमने पुरुष का कर्तव्य पुरुष की भाँति पालन किया। पृथ्वीसिंह यह सुनकर जमीन पर बैठ गये और रोने लगे। ( ५ ) श्रव राजनन्दिनी सती होने जा रही है। उसने मोलहो शृङ्गार किये हैं ओर मॉग मोतियों से भरवाई है। कलाई में सोहाग का कगन है, पैरों में महावर लगायी है और लाल चुनरी ओढ़ी है। उसके अंग से मुगन्धि उड़ रही है, क्योकि वह प्राज सती होने जाती है । राजनन्दिनी का चेहरा सूर्य की भाँति प्रकाशमान है। उसकी योर देसने से आँखो में चकाचौंध लग जाती है। प्रेम-मद से उसका रोयों रोयों मस्त हो गया है, उसकी औसो से अलौकिक प्रकाश निकल रहा है। वह आज त्वर्ग की देवी जान पढ़ती है। उसकी चाल बड़ी मदमाती है। वह अपने प्यारे पति फा सिर अपनी गोद में लेती है और उस चिता में बैट जाती है जो चन्दन, खस श्रादि से बनायी गयी है। सारे नगर के लोग यह दृश्य देखने के लिए उमड़े चले आते हैं। बाजे यज रहे हैं, फूलों की वृष्टि हो रही है। सती चिता में बैठ चुकी थी कि इतने में कुँवर पृथ्यासिंद आये मोर हाथ जोड़कर योले-महारानी, मेरा अपराध क्षमा करो। सती ने उत्तर दिया-क्षमा नहीं हो सकता । नुमने एक नौजवान राजपूत दी जान ली है, तुम भी जवानी में मारे जाओगे।